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भल हर भल हरि भल तुअ कला

bhal har bhal hari bhal tu kala

विद्यापति

अन्य

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विद्यापति

भल हर भल हरि भल तुअ कला

विद्यापति

और अधिकविद्यापति

    भल हर भल हरि भल तुअ कला।

    खन पित बसन खनहिं बघछला॥

    खन पंचानन खन भुज चारि।

    खन संकर खन देव मुरारि॥

    खन गोकुल भए चराइब गाय।

    खन भिख मांगिए डमरू बजाय॥

    खन गोबिंद भए लिन महिदान।

    खनहि भसम भरु कांख बोकान॥

    एक सरीर लेल दुइ बास।

    खन बैकुंठ खनहि कैलास॥

    भन विद्यापति बिपरित बानि।

    नारायण सुलपानि॥

    हे शिव! तुम श्रेष्ठ हो और तुम्हारी कला भी श्रेष्ठ है। तुम क्षण में ही पीतांबर धारण कर विष्णु रूप हो जाते हो और क्षण मात्र में ही बाघांबर धारण कर शिव रूप में प्रतिभासित होने लगते हो। हे प्रभो! कभी तुम क्षण मात्र में पंचानन शिव रूप धारण कर लेते हो और कभी क्षण मात्र में ही चतुर्भुज विष्णु के रूप में दीखने लगते हो। क्षण में ही तुम शिव बन जाते हो और क्षण में मुर राक्षस को मारने वाले कृष्ण बन जाते हो। क्षण में ही तुम गोकुल में स्थित हो गायों को चराते हुए गोपाल रूप में दीख पड़ते हो और फिर क्षण में ही शिव-रूप में डमरू बजा कर भीख मांगते हुए दिखाई देने लगते हो। कभी क्षण में ही तुम गोविंद बनकर गोपियों से दधिदान लेने लगते हो और फिर क्षण भर में ही ठीक इसके विपरीत, भस्मी कांख में भर कर वैरागी का रूप धारण कर लेते हो। हे प्रभो! हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि तुम एक तत्त्व हो और दो शरीरों के रूप में दो स्थानों में अधिवास कर रहे हो अर्थात् क्षण भर में ही तुम कैलाश पर्वत पर वास करते दीखते हो फिर दूसरे क्षण में ही विष्णु का रूप धारण कर बैकुंठ में विराजमान दीखते हो। कवि विद्यापति विरोधाभासी वाणी 'हे नारायण और हे शूलपाणि' कहता है। तात्पर्य है कि वस्तुत: विष्णु और शिव तत्त्वतः अभिन्न हैं, केवल वाणी की अभिव्यक्ति में दो भिन्न रूपों में दृष्टिगोचर हो रहे हैं। यह वाणी ही विपरीत वाणी है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : विद्यापति का अमर काव्य (पृष्ठ 131)
    • संपादक : गोपालाचार्य 'पराग'
    • रचनाकार : विद्यापति
    • प्रकाशन : स्टूडेंट स्टोर बिहारीपुर बरेली
    • संस्करण : 1965

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