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आवलिया पीरा गुरु बड़ा ज्ञान गंभीरा

awaliya pira guru baDa gyan gambhira

दलुदास

अन्य

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दलुदास

आवलिया पीरा गुरु बड़ा ज्ञान गंभीरा

दलुदास

और अधिकदलुदास

    आवलिया पीरा, गुरु बड़ा ज्ञान गंभीरा।

    आप ही आप मिले जहाँ जाई, पूछे-पूछे अज़मत पाई,

    दोनों का मिलिया मेल, मिले एक धारा॥

    वन में बैठी दोनों मूरत, जहाँ बात ज्ञान की झड़ती,

    अहो बणी रही साँवलई सूरत, मूरत लगे धीरा॥

    सिंगा भागी दरसन पाये, सिंगा हमको तीरसा लागी,

    अहो जल बिना तलफ रह्यो, यो प्राण धरत नहीं धीरा॥

    वन खंड झाड़ी बहुत उजाड़ी, यहाँ पाणी कहाँ पावो साईं,

    अहो तपी रह्या रहन उँढाला, तपत अधीरा।

    सत आनंद के प्रेम भुजा पर, ज्ञान ध्यान का भरिया सागर,

    अहो जिन पतित परचा दिया बताई, सूखी नदी बहायो नीरा।

    बंदन खोल किया सब न्यारा, साई ने ज्ञान बकसा भारा,

    अहो जिन मुरदा लिया जिलाई, खिलाई महेष की खीरा।

    मुद्रिका डाली है कानों में, सतगुरु बैठे हैं लख ध्यानों में,

    अहो जेको नांव धर्यो भिकार्यो, अन्न उपज्यो हीरा रत्न की खांण।

    स्यामगीर वो दला सिपाही, घोड़ा छोड़ मैजद दौड़ाई,

    अहो जहाँ आचरित हुई वा सारी, थकित हुआ आमीरा।

    आवघड़ आवघड़ नर कहिये, कहिये नंगा भूका कबहू ना रहिये,

    अहो जहाँ दलु पतित यों कहे, राख लों धीरा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : संत सिंगाजी एक अध्ययन (पृष्ठ 139)
    • संपादक : रामनारायण उपाध्याय
    • रचनाकार : दलुदास
    • प्रकाशन : साहित्य-कुटीर
    • संस्करण : 1965

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