पुष्प-वाटिका प्रसंग (तीन) : रामचरितमानस

pushp watika prsang (teen) ha ramacharitmanas

तुलसीदास

तुलसीदास

पुष्प-वाटिका प्रसंग (तीन) : रामचरितमानस

तुलसीदास

करत बतकही अनुज सन मन सिय रूप लोभान।

मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥

चितवति चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृप किसोर मन चिंता॥

जहँ बिलाकि मृग सावक नयनी। जनु तहँ बरिस कमल सित स्रेनी॥

लता ओट तब सखिन लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए॥

देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥

थके नयन रघुपति छवि देखें। पलकन्हिहू परिहरीं निमेषें॥

अधिक सनेह देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितब चकोरी॥

लोचन मग रामहिं उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥

जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानीं। कहि सकहि कछु मन सकुचानीं॥

राम छोटे भाई से बातें कर रहे हैं, पर सीता के रूप में लुभाया हुआ उनका मन सीता के कमल जैसे मुख की मकरंद रूपी छवि को भौंरे की तरह पी रहा है।

सीता चारों ओर चकित होकर देख रही हैं। उनके मन में चिंता है कि राजपुत्र कहाँ गए। वह मृग के बच्चे की-सी आँख वाली सीता जहाँ दृष्टि डालती हैं वहाँ मानो सफ़ेद कमलों की पंक्ति बरस पड़ती है।

तब सखियों ने लता की आड़ में साँवले और गोरे सुंदर कुमारों को दिखलाया। उनके रूप को देखकर नेत्र ललचा उठे। ऐसे हर्षित हुए, मानो उन्होंने अपना ख़ज़ाना ही पहचान लिया।

रामचंद्र जी की छवि देखकर नेत्र निश्चल हो गए। पलकों ने भी गिरना छोड़ दिया। अधिक स्नेह से देह की सुध-बुध जाती रही। मानो शरद् ऋतु के चंद्रमा को चकोरी देख रही हो।

नेत्र के मार्ग से राम को हृदय में लाकर सयानी सीता ने पलकों के कपाट बंद कर लिए। जब सखियों ने सीता को प्रेम के वश में जाना, तब वे मन में सकुचा गईं, कुछ कह नहीं सकती थीं।

स्रोत :
  • पुस्तक : श्री रामचरितमानस (पृष्ठ 148)
  • रचनाकार : तुलसी
  • प्रकाशन : लोकभारती
  • संस्करण : 2017

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