Font by Mehr Nastaliq Web

आवत परेखो जहाँ जीय की न जानै कोऊ

aawat parekho jahan jeey ki na janai kou

आलम

अन्य

अन्य

आलम

आवत परेखो जहाँ जीय की न जानै कोऊ

आलम

और अधिकआलम

    आवत परेखो’ जहाँ जीय की जानै कोऊ,

    जरौ ऐसे ब्रजु तहाँ कैसे करि रहिये।

    कालिंदी के कूल तेकि कोटि सूल मूल भई,

    मुरली की धुनि छिन सुनिये सहिये।

    ‘आलम’ कहै हो कुलकानि गई जाति हेई,

    बिरह विकल भई कौलौं बाट बहिये।

    कासों कहों कहे कोऊ पीरौ वँटावै तातें,

    चुप ही भली है कान्ह कछुवै कहिये॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : आलम-केलि (पृष्ठ 75)
    • संपादक : भगवानदीन
    • रचनाकार : आलम
    • प्रकाशन : उमाशंकर मेहता
    • संस्करण : 1922

    संबंधित विषय

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    हिन्दवी उत्सव, 27 जुलाई 2025, सीरी फ़ोर्ट ऑडिटोरियम, नई दिल्ली

    रजिस्टर कीजिए