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युवकों की रण-यात्रा

yuwkon ki ran yatra

रामनरेश त्रिपाठी

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रामनरेश त्रिपाठी

युवकों की रण-यात्रा

रामनरेश त्रिपाठी

और अधिकरामनरेश त्रिपाठी

    (1)

    जय के दृढ़ विश्वास-युक्त थे

    दीप्तिमान जिनके मुख-मंडल

    पर्वत को भी खंड-खंड कर

    रज-कण कर देने को चंचल

    फड़क रहे थे अति प्रचंड भुज—

    दंड शत्रु-मर्दन को विह्वल

    ग्राम-ग्राम से निकल-निकलकर

    ऐसे युवक चले दल के दल।

    (2)

    अपने शयनागार बंद कर

    दिए नवोढ़ाओं ने तत्क्षण

    बाँध दिए पतियों की कटि में

    असि, कलाइयों में रण-कंकण...

    माताओं ने विजय-तिलक कर

    छिड़के थे जिन पर पवित्र जल

    ग्राम-ग्राम से निकल-निकलकर

    ऐसे युवक चले दल के दल।

    (3)

    अरि-मर्दन के मनोभाव थे

    जिनकी मुख-आकृति में लक्षित

    जिनके हृदय पूर्व पुरुषों की

    वीर-कथाओं से थे रक्षित

    जिनमें शारीरिक बल से था

    कहीं अधिक उद्दाम मनोबल

    ग्राम-ग्राम से निकल-निकलकर

    ऐसे युवक चले दल के दल।

    (4)

    जिनकी नस-नस में विद्युत थी

    आँखों में था क्रोध प्रज्वलित

    छाती में उत्साह भरा था

    वाणी में था प्राण प्रवाहित

    मातृभूमि के लिए हृदय में

    जिनके भरी भक्ति थी अविरल

    ग्राम-ग्राम से निकल-निकलकर

    ऐसे युवक चले दल के दल।

    (5)

    माँ ने कहा—दूध की मेरी

    लज्जा रखना रण में हे सुत!

    स्त्री ने कहा—लौटना घर को

    आर्यपुत्र! तुम विजय-श्री-युत

    इन वचनों से गूँज रहे थे

    जिनके श्रवण और अंत:स्तल

    ग्राम-ग्राम से निकल-निकलकर

    ऐसे युवक चले दल के दल।

    स्रोत :
    • पुस्तक : स्वतंत्रता पुकारती (पृष्ठ 92)
    • संपादक : नंद किशोर नवल
    • रचनाकार : रामनरेश त्रिपाठी
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2006

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