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यह देश हमारा है

ye desh hamara hai

ज्योति रीता

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ज्योति रीता

यह देश हमारा है

ज्योति रीता

और अधिकज्योति रीता

    एक विशाल पुस्तकालय में

    किताबें उदास पड़ी थीं

    जमी धूल उनका उपहास था

    बेचैन युवा

    शांत मन की तलाश में पलट रहा था किताब

    भीचकर मुट्ठी थाम रहा था क़लम

    काग़ज़ से मिटा रहा था विभेद की रेखाएँ

    यह शुरुआत अच्छी थी

    देश की बेचैनी तुम्हारे बोलने से है

    तुम अपना सिर ओखली में डालकर

    मूसल का इंतज़ार आख़िर कब तक करोगे

    तुम ही अकेले नहीं थे

    शहर अकेला था

    यहाँ की भीड़ अकेली थी

    दाँत भींचकर

    बालकनी में खड़े होकर

    चीख़ने से बदलाव कब हुआ है

    सीढ़ी का इस्तेमाल उतरने के लिए कब करोगे

    क़ानून की देवी ही क्यों खड़ी है हर अदालत में

    आँखों पर पट्टी बाँधे

    तराज़ू पकड़ी स्त्री चाहती है अब बदलाव

    सभ्यताओं के दामन पर छिड़का जा सके इत्र

    मनुष्यता की हो खेती

    जिसमें सबकी हो बराबर की भागीदारी

    मालिक याकि मज़दूर

    सबके कोश में जाए भरपेट अनाज

    सबके कुएँ में हो पानी

    बच्चों के हाथ में जूठे कप प्लेट की जगह हो किताबें

    पढ़ने के बाद तलने पड़े पकौड़े

    हाथों में हो पत्थर धर्म का कोई झंडा

    देश की लंबी गहरी साँसों में

    ज़हर की जगह हो ऑक्सीजन

    टाइम से ऑफ़िस के लिए निकलते हों युवा

    एक युवा स्त्री निगल लेना चाहती है

    अपनी ग्रीवा में समस्त पुरुष सत्ता

    ताकि जन्म दे सके समरूप सत्ता

    बने नया इतिहास

    लिखी जाए नई इबारत

    देश जाने कब से कराह रहा है

    वह चाहता है एक नया मज़बूत स्तंभ

    एक बूढ़ी स्त्री लड़खड़ाते तेज़ क़दमों से

    चलती हुई कहती है—जय हिंद!

    यह देश हमारा है

    हमारे बच्चों का है

    स्रोत :
    • रचनाकार : ज्योति रीता
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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