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यह आम रास्ता नहीं है

ye aam rasta nahin hai

अखिलेश जायसवाल

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अखिलेश जायसवाल

यह आम रास्ता नहीं है

अखिलेश जायसवाल

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    भाषा के इलाक़े में

    मैं जिस मोड़ पर खड़ा था

    उसके आगे वह आम रास्ता नहीं था।

    संभवत यह उसे इलाक़े का

    शातिर विज्ञापन था कि

    आप आएँ भाषा के इस इलाक़े में,

    चहल-क़दमी करें, चकाचौंध देखें

    और जाने ज़िंदगी को पूरी तरह से जीने के मायने।

    भाषा के वर्जित प्रदेश में

    एक-एककर कपड़े उतारतीं

    कुछ नंगी आत्म स्वीकृतियाँ थीं

    जो साहित्य के घूँघट में अपना चेहरा छुपाए

    शरीर के वर्जित भागों की नुमाइश कर रही थीं।

    उनके हाथों में ह्यूमन इंस्टिंक्ट के चिकने घड़े थे

    जिन पर फिसल रही थीं वर्जनाएँ।

    लोग हतप्रभ थे,

    शर्म से गड़े जा रहे थे

    और धरती के फटने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे।

    सबसे ज़्यादा स्तब्ध वे थे

    जिनके महत्वाकांक्षी सपनों में बसता था यह प्रदेश,

    जिनकी कल्पनाओं में यह देवदूतों की नगरी थी

    और जहाँ से आता था, भाषा की रात में

    अंधकार को चीरते हुए एक दिव्य प्रकाश।

    काँप रहे थे नए हस्ताक्षरों के हाथ,

    उन्हें उनके अवचेतन का हवाला देकर

    दिखाया जा रहा था

    अंतर्वस्त्रों की गाँठों और मन की गाँठों का

    अन्योन्याश्रय संबंध।

    लेखन में जान फूँकने का यह प्रयोग

    जब भी हुआ है—हिला गया है सभ्यता की चूलें।

    एक पैगंबर जैसी अदाओं वाले शख़्स ने

    मुझसे कहा—शीशा दिखाया है मैंने तुम्हें।

    हज़ारों सालों में मैंने कमाया है अपना चेहरा,

    हज़ारों वर्ष लगे हैं आँखों की नीली लपट बुझाने में,

    नुकीले दातों की गोश्त-ख़ोर गुर्राहट भुलाने में,

    गुह्यांगों को ढंक पाने में

    और जंगलों को जनपद बनाने में।

    मैं कतई नहीं खोना चाहता हूँ

    एनिमल से 'सोशल एनिमल' के अपने रूपांतरण को,

    मैं दो ही पैरों पर खड़े रहना चाहता हूँ।

    चेहरे पर उदासी का मुलम्मा चढ़ाए

    एक अधेड़ से आदमी ने कहा—

    प्रायश्चित के प्रदेश में आपका स्वागत है।

    शायद उसने इन आत्म स्वीकृतियों को

    प्रायश्चित की पवित्रता देनी चाही

    लेकिन किसी आँख में प्रायश्चित की नमी नहीं थी

    और प्रायश्चित था भाषा का मोहताज।

    प्रायश्चित की परंपरागत पद्धतियों को

    संप्रेषणहीनता के आरोप में

    खदेड़ दिया गया था आदिवासी क्षेत्रों में

    जहाँ सिसक रही थी एक आदिवासी युवती

    अपनी मज़बूरियों के दोहन के खिलाफ़,

    अपने फटे आँचल में वर्जनाओं को संभाले हुए

    और भाषा गिड़गिड़ा रही थी

    उसके पैरों पर गिरकर माफ़ी माँगते हुए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : अखिलेश जायसवाल
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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