हरेपन में बकना

harepan mein bakna

मलयज

मलयज

हरेपन में बकना

मलयज

चाहे कुछ भी वह दिखे

एक ज़ख़्मी हाथ

बुझा हुआ चूल्हा

कंधे पर से फटी हुई क़मीज़

पर कविता वह हर्गिज़ दिखे

आर-पार बिंधी जा कर वह चीख़े

पर शब्द उससे झरें बिंब चुएँ

एक चीज़ उँगलियों की पोरों पर फफोले उगाती हुई चली गई

तुमने उसे सिर्फ़ अपनी सनसनी में झेला

एक चीज़ जो बरस से सुलग रही थी

उसे तुमने कहा बसंत

तवे पर जलती रोटी तुमने देखी

पर किमख़ाब का वह चुप टुकड़ा नहीं

जो रोटी के हाशिए को चबा रहा है

तुम्हारी लालची निगाह में एक चोर आँसू है प्रतीक

जो नारे लगाती हट्टी-कट्टी भीड़ के लिए बरस रहा है

अब अंतिम बार तुम्हें यह करना होगा

पेड़ और धूप और चिड़िया को

अपने सच में से छानकर सन्नाटे में बुनने के पहले

उन्हें शोर की दुम में नत्थी करना होगा

यह आख़िरी मौक़ा है

तुम्हें गोली और तेंदुआ और वर्दी को

सवा लाख मील लंबे अपने पोस्टर पर टाँगने के पहले

अपने झूठ में घुलाकर उनका अर्क़

एक बूँद पत्ती के हरेपन में बकना होगा

स्रोत :
  • पुस्तक : अपने होने को अप्रकाशित करता हुआ (पृष्ठ 52)
  • रचनाकार : मलयज
  • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
  • संस्करण : 1980

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