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एशिया

asia

अनुवाद : हरिभजन सिंह

संतोखसिंह धीर

अन्य

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और अधिकसंतोखसिंह धीर

    मेरे माथे पर पौ फटी

    उषा ने आलोक वर्षण किया।

    रक्तिम किरणों ने आकर

    मेरे नयनों को जागृति दी।

    आलस्य दूर हुआ;

    मैं उठा मानो एक तूफ़ान जाग उठा।

    मुझे अपनी शक्ति फ़ौलाद के समान प्रतीत हुई।

    घोर नरक का संहार कर

    मैंने स्वर्गपुरियों का निर्माण किया।

    यमदृत को नाथ कर, उसकी बागे

    लोगों के हाथ में दे दी।

    मैं सदा धधकती ज्वाला पर

    शीतल बूँदे बरसाता रहा।

    वे ही आग में भस्मीभूत हुए जो मुझे जलाने आए थे

    मेरे कृष्ण की सुनीति

    कपट-नीति को चुनौती दे रही है।

    यह चुनौती देती है उन्हें जो किसी की मान-मर्यादा लूटते हैं

    अथवा किसी का स्वत्व हरण करते हैं।

    यह सदा सत्य का पक्ष लेती है

    और नीर-क्षीर विवेचन करती है

    मैं उस नीति का उत्तराधिकारी हूँ, मुझे उस पर अपरिसीम गर्व है।

    मेरे बुद्धदेव की अहिंसा

    मेरे भिक्षुओं द्वारा है वितरित

    मेरे नानक की वाणी

    अत्याचारियों को फटकार रही है

    विश्व-भर से मैत्री संबंध

    मेरे देवता स्थापित कर रहे हैं

    मैं कोटि-कोटि का स्नेही, मुझे अकेला मत समझो

    मैं कभी सराहता नहीं

    आक्रमण, युद्ध, बल-प्रयोग

    मैं सदा शांति चाहता रहा हूँ

    इतिहास साक्षी है।

    जहाँ सब मिलकर बैठते हैं

    वही मेरा गंतव्य है

    जीवन-प्रेम के स्वप्न मुझे मदमत्त बना देते हैं।

    मैंने कभी सत्य का आँचल नहीं छोड़ा

    भले ही मुझे विष-पान करना पड़ा

    वेद, गीत और क़ुरआन

    मेरे अडिग सत्य-प्रेम के साक्षी हैं

    मेरे रक्त का रहस्य कहते हैं—

    मठ, गिरजे और शिवालय।

    मैं जन-गीत हूँ, जिसे संत और सूफ़ी गाते हैं।

    मुझे कौन फाड़ सकता है

    सांप्रदायिक कथा सुनाकर।

    मेरे वक्ष से ही फूटकर बहते हैं

    गंगा और ज़मज़म के नीर

    सीमा-रेखाएँ नहीं तोड़ सकतीं

    युग-युगांतर के सायुज्य को।

    आज वही रेखाएँ खींच रहे हैं जो आदि काल से मेरी निंदा

    करते रहे हैं।

    क्या कोई अपने ही पेट में

    कृपाण घोप लेता है?

    एशिया-निवासियों से नहीं है

    एशिया वालों का कोई द्वंद्व

    हाँ, उनसे मेरा युद्ध है अवश्य

    जो यहाँ लूट मचा रहे हैं

    जो मुझे सीख दे रहे हैं कि सभ्यता रक्त पर पलती है।

    समान-वय बंधुओं ने एक-दूसरे के लिए

    प्रीति-मालाएँ गूँथी हैं।

    मास्को, दिल्ली और पीकिंग

    कंधे-से-कंधा जोड़कर खड़े हैं।

    चीन की प्राचीर के समान

    आज मेरे लोग हैं

    जो इससे टकराएँगे, खंड-खंड होकर गिरेंगे।

    जाग उठी है मेरी ऊसर धरती

    पार्वत्य घाटियाँ, मैदान और जंगल;

    नील, गंगा, वोल्गा—

    यांग-सी, और चनाब में लहरें उठ रही हैं।

    मेरे पथों के रज-कण तारों से बातें कर रहे हैं

    गगनचुंबी पर्वत मुझे गौरवान्वित कर रहे हैं।

    मेरे माओ की दृढ़ता

    मेरे स्टालिन की नीति

    मेरे गाँधी की सत्यता

    और जन साधारण से प्रीति

    स्वत्व के लिए समर करना

    यह मेरे लोगों की नीति है।

    मुझ पर किसी का प्रभुत्व नहीं, मुझे किसी का भय नहीं।

    जब तक धरती—

    सूर्य के गिर्द घूमती रहेगी

    घन-घोर श्याम मेघ-पुञ्ज को

    जैसे बिजली धुनकती है

    वैसे ही जूझते रहेंगे अत्याचार से

    स्वाभिमानी मनुष्य।

    यह शिला-रेखा के समान ध्रुव सत्य है; मुझे अनजान मत समझो!

    उषा नित्य जन्म लेती है

    अंधकार की कोख से;

    क्रांति जागेगी

    जन-जन की भूख में से

    नव-युग का भाग्य-निर्माण होगा

    सर्व-व्यापी दु:ख से

    जीवन की अमावस्या में मुझे चंद्रमा दिखाई दे रहा है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 472)
    • रचनाकार : संतोखसिंह धीर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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