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वह ताँबे का कड़ा

wo tanbe ka kaDa

वीरेंद्र कुमार जैन

अन्य

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वीरेंद्र कुमार जैन

वह ताँबे का कड़ा

वीरेंद्र कुमार जैन

और अधिकवीरेंद्र कुमार जैन

    छपरे में बैठा

    तुम्हें लिख रहा हूँ पाती...

    औचक ही

    कुछ बालकों की हाँकें सुनाई पड़ीं :

    और उनके साथ

    दौड़ते रँभाते बछड़ों के

    खुरों के रव गूँज उठे...

    और तुम्हें पाती लिखती

    मेरी क़लम पर आकर

    अचानक गिरा

    एक ताँबे का छोटा-सा कड़ा :

    अंतरिक्ष का उपहार...!

    मैंने नतशिर किया स्वीकार :

    हो गया मेरे पत्र का उपसंहार...

    लो, तुम्हें भेजता हूँ—

    ये सारे पर्वत, जंगल,

    अनफूट झरने, अनबही नदियाँ—

    एक अनजाए शिशु की

    कलाई में ढालकर,

    जो कभी यह कड़ा पहनेगी,

    और खेल-खेल में ही

    इस सारी प्रकृति-संसृति को

    एक नई ही भंगिमा में

    मोड़ देगी,

    नए ही आकारों में

    मनचाहा उकेर देगी...!

    स्रोत :
    • पुस्तक : कहीं और (पृष्ठ 52)
    • रचनाकार : वीरेंद्र कुमार जैन
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2007

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