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वह नदी जो मन में है

wo nadi jo man mein hai

रेखा चमोली

अन्य

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रेखा चमोली

वह नदी जो मन में है

रेखा चमोली

और अधिकरेखा चमोली

    जनवरी की एक सुबह भागीरथी के बीचोबीच दिखती है एक स्त्री

    डुबकी लगाती और बाहर निकलने पर ज़ोर से चिल्लाती

    उसकी चीख़ सुन आते-जाते लोग रुक गए पुल पर

    उस स्त्री में देखने जैसा कुछ ख़ास नहीं

    पूरे कपड़े पहने प्रौढ़ा-सी वह स्त्री

    पुल से गुज़रते लोगों के बीच हँसी-ठठ्ठा का विषय बन गई

    पागल औरत! कहती है एक आवाज़

    बेशर्म औरत!

    कितनी ज़ोर से चिल्लाई बाप रे बाप!

    ठंड लग गई होगी ज़्यादा

    कुछ लोग रुक जाते हैं दो चार सेकंड

    फिर से जब डुबकी लगाएगी तो चिल्लाएगी क्या?

    थोड़ी देर बाद थोड़ा और भीतर उतरती है वह नदी के

    पानी से बाहर निकल और ज़ोर से चिल्लाती है

    इस बार किसी का नाम

    किसका? समझ नहीं आता

    पुल पर रुकीं दो स्त्रियाँ एक दूसरे की ओर देखती हुई हँसती हैं

    अच्छा किया इसने, अपना दर्द नदी में बहा दिया

    अब कुछ ठीक महसूस कर रही होगी

    क्या पता अभी कितना बचा हो भीतर?

    होने दो, एक बार आई है तो दुबारा भी जाएगी

    नदी है ही कितनी दूर

    क्या पता अगली बार तक ख़ुद में ही ढूँढ़ ले अपनी नदी

    यहाँ आने की ज़रूरत नहीं होगी तब

    तुम्हें कैसे पता?

    सारी स्त्रियों के भीतर होती है उनकी अपनी नदी,

    ढूँढ़नी पड़ती है

    फिर उस नदी में उतरना होता है चुपचाप

    तभी तो चलती है ये दुनिया व्यवस्थित

    होते हैं काम-काज

    घूमते हैं चाँद-तारे-सूरज-पृथ्वी अपनी अपनी गति...

    स्रोत :
    • रचनाकार : रेखा चमोली
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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