विवशता

wiwashta

चरण सिंह

चरण सिंह

विवशता

चरण सिंह

यह मेरा चिंतन, जिसे वेदना समग्र सृष्टि की,

मेरा चित्त प्रिये, रात-दिन जलाए क्यों?

बजाए जलाने के, आज जोत-जोत को

निर्दयी वैरिन की तरह यह उसे बुझाए क्यों?

जिधर-जिधर भी यह दृष्टि जाती है,

प्रकृति के अनेक रंग-रूप दिखते हैं

समय से सरकती सृष्टि के कोमल पैरों के,

निशान धरती पर नित्य सुंदर फ़बते हैं

मैंने जो भी रंग-रूप सृष्टि का जाना है,

दृष्टि निहारती और नाम भी उसे देती है।

नई जो सर्जना सृष्टि की, नाम नहीं आता है,

जिह्वा छटकती, अनेक ज़ोर लगाती है।

और भाव चीख़ते, विचार विलाप करते हैं,

यह चित्त तड़पता बेबस, राह नहीं सूझती,

नज़र निहारती ये रंग नए, ममता से

और शूल वेदना का, एक कोने में जा बुझती है।

नज़र-नज़र में क्यों अंतर, सभी नज़रें जो,

मेरी ही नज़र, नए रंग को निहारे क्यों?

यह मेरा चिंतन, जिसे वेदना समग्र सृष्टि की

मेरा ही चित्त प्रिये, रात-दिन जलाए क्यों?

मुझे जो भी मानव मिलता है

मेरा ही अंग-संग रंग-रूप होता है।

पर जब बोलता, मन की बातें करता तो

अजीब अजनबी ही रंग-ढंग होता है।

लाचार तड़पती बेहाल-सी मनुजता है,

अनचाहे जैसे कोई विषपान करता है।

संतोष, शांति स्वाद नहीं ये जीने के

सताया गया ही मानव जीवन यह जीता है।

घिर रही धुंध, धुँधली घटाएँ राहों पर

मनुज मंज़िलों और झंझाओं में भटक रहा।

सिर पर स्वार्थों का बोझा, उपत्यका दुर्गम है,

इसकी हर ठोकर पर दिल मेरा धड़क रहा।

यह मेरी वेदना, जिसे है दर्द सभी का,

मुझमें ही नित्य नई पीड़ा जगाए क्यों?

यह मेरा चिंतन, जिसे वेदना समग्र सृष्टि की,

मेरा ही चित्त प्रिये, रात दिन जलाए क्यों?

जो जो भी शब्द स्वर मैं सुनता हूँ

और हर आवाज़ जो दुःख-दर्द उड़ेल रही।

मेरी ही अपनी आवाज़ अनेक कानों में,

अजब मादकता रंगीन, रस घोल रही।

और मेरे तड़पते स्वरों का फिर भी हिसाब है

किसी को फ़ुरसत ही नहीं तनिक कान धरने की,

किसी को जल्दी नहीं तनिक, संशय है,

यह मेरा दुःख-दर्द भार हल्का करने की।

चहुँ ओर कहर मचा हाहाकार दिशाओं में,

मेरी आवाज़ भी शोर में खो जाएगी।

डरता हूँ बाद में क्या होगा मनुजता का,

यह अभी अवयस्क कोमल और अबोध है।

मेरी आवाज़ जिसे है चिंता पीड़ा सृष्टि की,

मेरी ही सूरत नित्य ही दिखलाए क्यों?

यह मेरा चिंतन, जिसे वेदना समग्र सृष्टि की

मेरा ही चित्त प्रिये, रात दिन जलाए क्यों?

भावी पीढ़ी की विकासशील नई पौध तू,

बेशक खीझना तू मेरी इस विवशता पर।

पर कोई निर्णय देने से पूर्व हे कलिके,

तू ध्यान भी देना आज के परिवेश पर।

बेशक चहकना चिड़िया, मेरी मजबूरी पर,

तनिक भर देखना चलन तू ज़माने का।

शराफ़त सिसकती प्रिये, मनुजता बाँदी है,

चहुँ ओर झूठ फ़रेब के घिरे ताने-बाने की।

सम्मान कोई नहीं है मानव का आज ज़माने में,

ख़ुश हैं चोर-लुटेरे और साधु रो रहा

और आज मानव की दया का मानव बंदी है,

बनी बहुरूपिणी लिप्सा, वह दरबदर है हो रहा।

अजीब अड़चने हैं, आज आस अँधेरे में,

दीपक स्वार्थों के नित नए हैं जला रहे

यह मेरा चित्त प्रिये, रात-दिन जलाए क्यों?

बजाय जलाने के आज जोत-जोत को

निर्दय वैरिनों की तरह यों बुझाए क्यों?

स्रोत :
  • पुस्तक : आधुनिक डोगरी कविता चयनिका (पृष्ठ 81)
  • संपादक : ओम गोस्वामी
  • रचनाकार : चरण सिंह
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 2006

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