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पानी

pani

आलोकधन्वा

अन्य

अन्य

आदमी तो आदमी

मैं तो पानी के बारे में भी सोचता था

कि पानी को भारत में बसना सिखाऊँगा

सोचता था

पानी होगा आसान

पूरब जैसा

पुआल के टोप जैसा

मोम की रोशनी जैसा

गोधूलि में उस पार तक

मुश्किल से दिखाई देगा

और एक ऐसे देश में भटकाएगा

जिसे अभी नक़्शे में आना है

ऊँचाई पर जाकर फूल रही लतर

जैसे उठती रही हवा में नामालूम गुंबद तक

यह मिट्टी के घड़े में भरा रहेगा

जब भी मुझे प्यास लगेगी

शरद में हो जाएगा और भी पतला

साफ़ और धीमा

किनारे पर उगे पेड़ की छाया में

सोचता था

यह सिर्फ़ शरीर के ही काम नहीं आएगा

जो रात हमने नाव पर जगकर गुज़ारी

क्या उस रात पानी

सिर्फ़ शरीर तक आकर लौटता रहा?

क्या-क्या बसाया हमने

जब से लिखना शुरू किया?

उज़डते हुए बार-बार

उज़डने के बारे में लिखते हुए

पता नहीं वाणी का

कितना नुक़सान किया

पानी सिर्फ़ वही नहीं करता

जैसा उससे करने के लिए कहा जाता है

महज़ एक पौधे को सींचते हुए पानी

उसकी ज़रा-सी ज़मीन के भीतर भी

किस तरह जाता है

क्या स्त्रियों की आवाज़ों में बच रही हैं

पानी की आवाज़ें

और दूसरी सब आवाज़ें कैसी हैं?

दु:खी और टूटे हुए हृदय में

सिर्फ़ पानी की रात है

वहीं है आशा और वहीं है

दुनिया में फिर से लौट आने की अकेली राह।

स्रोत :
  • पुस्तक : दुनिया रोज़ बनती है (पृष्ठ 54)
  • रचनाकार : आलोकधन्वा
  • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
  • संस्करण : 2015

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