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विश्वंभरनाथ उपाध्याय

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और अधिकविश्वंभरनाथ उपाध्याय

    मैं जानता हूँ वह बरसों

    मिट्टी के घड़ों की तरह

    लोगों को बजा-बजाकर देखती रही है

    किन्हीं-किन्हीं को फोड़कर भी देखा है उसने

    कि वह किस मिट्टी का बना है

    उसे वह टन्नाकेदार आवाज़

    किसी पात्र में नहीं मिली

    जो सही आँच मे धीमे-धीमे पकने से उपजती है

    उसने घंटों मेरे आवाँ के पास

    खड़े होकर प्रतीक्षा की है

    कि... कि कोई युक्तियुक्त परिपक्वता हासिल हो जाए

    पर, उसे या तो मुसमुसा कच्चापन मिला है

    या फुँकी हुई फ़ितरत

    अब वह थक कर मेरे समीप आकर बैठ गई है

    और सहमति जता रही है

    अपने परी चेहरे पर जमी हुई राख से!

    मैं उससे कैसे कहूँ

    मैं स्वयं एक कुंभकार हूँ

    बैठा हूँ अब तलक

    किसी आदर्श पक्वता की दुराशा में

    सामने भट्टे-सा जल रहा है संसार

    झोंक रहा हूँ अपने को

    उसकी आग सलामत रखने के लिए

    मैं उसकी अनुपातप्रियता से खिन्न होकर

    संकेत से कहता हूँ

    कि वह घर जाए

    और कच्चे पक्के किसी भी भाँडे से अपनी प्यास बुझाए

    प्यास की कमी में

    मटकों की उलट-पुलट बेमानी है

    और पानी तो चुल्लू से भी पिया जा सकता है

    उसने पपड़ाए होंठों को तर किया

    और मुझे उठाकर अपने कुएँ में उतार लिया

    मैं उसकी रस्सी से बँधा

    बूँद-बूँद भर रहा हूँ बुड़क-बुड़क

    उसकी गिर्री पर खिंच रहा हूँ

    उसकी घनौंची पर हटा हूँ

    चाक घुमाते-घुमाते शायद उसकी उपस्थिति से

    मैं स्वयं उसके दाह में पकता हुआ

    अग्नि का सही समीकरण पा गया हूँ!

    वह प्रसन्न है मेरी घटायमानता पर

    मैं चकित हूँ उसके चमत्कार पर!

    स्रोत :
    • पुस्तक : निषेध के बाद (पृष्ठ 98)
    • संपादक : दिविक रमेश
    • रचनाकार : विश्वम्भरनाथ उपाध्याय
    • प्रकाशन : विक्रांत प्रेस
    • संस्करण : 1981

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