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वक़्त की धुन

wakt ki dhun

वसीम अकरम

अन्य

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वसीम अकरम

वक़्त की धुन

वसीम अकरम

वक़्त के राग में

सुबह, दोपहर, शाम और रात के

तीव्र-मध्यम स्वरों का आलाप,

कभी नर्म धूप लिए

सर्दी के माधूर्य जैसे मंद्र सप्तक में,

कभी रिमझिम फुहारों की

शीतलता जैसे मध्य सप्तक में,

तो कभी चिलचिलाती

मई-जून की गर्मी जैसे तार सप्तक में।

हज़ारों ख़याल, हज़ारों बंदिशें

सुरी-बेसुरी अनगिनत धुनें।

एक मुश्किल-सा सवाल

‘कौन-सी धुन सुनोगे?’

राजनेताओं के विकास के नाम की वो धुन

जो चुनाव से पहले

जनता रूपी तबले पर

कुछ पल के लिए तिरकिट-सा बजता है

या फिर

जनता के विलंबित ख़याल में

बेबस स्वरों का दर्द भरा आलाप।

‘कौन-सी धुन सुनोगे?’

आर्थिक विकास का ना-धिन-धिना,

सेंसेक्स की खटका-मुर्की,

और सम और ख़ाली पर उछलते

जीडीपी का रीमिक्स

या फिर

ग़रीबी, भुखमरी, लाचारी में

जी रहे दबे, कुचले लोगों की

आँखों से गिरते हुए

टप-टप आँसुओं का दर्दे-डिस्को।

‘कौन-सी धुन सुनोगे?’

अलंकृत अपराध के आरोह-अवरोह में

ख़बरों की तिहाई के साथ

टीआरपी की ठुमरी

या फिर

राम-रहीम का शंखनाद करते

धर्म के ठेकेदारों का तीव्र स्वरों में

धार्मिक उन्माद का वो पाप संगीत।

‘कौन-सी धुन सुनोगे?’

पाश्चात्य धुनों पर थिरकते

जिम से निकले युवा वर्ग के बलिष्ठ हाथों में

आधुनिक वाद्ययंत्रों के साथ

मादक पदार्थों का फ़्यूज़न

या फिर

आधी दुनिया कही जाने वाली

नारी के अधिकार रूपी कोमल स्वरों पर

पुरुष सत्तात्मक दुगुन-तिगुन के आघात से पैदा हुए

मानसिक अतिवाद का सरगम

‘कौन-सी धुन सुनोगे?’

इनकार का विकल्प नहीं है तुम्हारे पास

सुनना तो पड़ेगा ही

आज के लोकतंत्र में

इन्हीं धुनों का बोलबाला है

नहीं सुनोगे तब भी ये तुम्हें

सुनाई पड़ ही जाएँगी जहाँ-तहाँ

और कान बंद कर लेना

तुम्हारे बस की बात नहीं।

स्रोत :
  • रचनाकार : वसीम अकरम
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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