वादा

wada

अरुणाभ सौरभ

भुरभुरी रेतीली ज़मीन पर

पड़ती जेठ की धूप

नदी किनारे कि तपती ज़मीन पर

भागता क़दम—

मेरा और तुम्हारा

और जेठ की दुपहरी से

अपने आप हो जाती शाम

और गहराती शाम में

पानी की छत पर

नाव में जुगलबंदी करते हम

हौले-हौले बहते पानी से

सुनता कुछ—अनबोला निर्वात—

तुम मुझसे लिपटतीं

लिपटकर चूमतीं

चूम कर अपने नाख़ून से

मेरे वक्ष पर

लिख देतीं

प्यार की लंबी रक्तिम रेखा

सि...स...कि...याँ... छूटने पर

तुम विदा माँगतीं

और जेठ की दुपहरी से

नदी किनारे से

रेतीली ज़मीन से

पानी की छत और नाव से

वादा करते कि...

—हम फिर मिलेंगे साथियों

इतिहास पुरुष जैसा

काले आखरों की अंतहीन

उलझी दीवार फाँद कर

बाहर आने की चाह

स्याह दुनिया में

प्रलाप छोड़ना चाहता है, वो

किताबों की दुनिया से

जो शायद कह पाया हो

(अधूरे विचार)

जो ज़िंदगी से पहले दफ़्न हो गए

उसे पकाकर-सिंझाकर

निकालना चाहता है

आना चाहता है

पनियाई ख़ामोशी में

क़ब्र की मिट्टियों में

हौले-हौले

होती है सुगबुगाहट

आता है धीरे-धीरे

क़ब्रिस्तान से

साथ में मुर्दों की फ़ौज

देखता है जीते-जागते इंसानों की कमीनगी

दुर्गंध देती

लिजलिजी-चिपचिपी दुनिया

अर्थ-विकास-समाज-तंत्र

भागता है क़दम

फिर उसी क़ब्रिस्तान में

जहाँ से आया था

कि दूर से गूँजती है—

नारे की क़तार

गड़ासा-भाला-तलवार की

साँय-साँय-साँय

'निकलो', 'बाहर निकलो' की चिल्लाहट

कि सबके सब

मुर्दों के साथ

वह भी ज़ोर से चीख़ता है

'हमें अंदर ही रहने दो

हम यहीं हैं—तो ठीक हैं'

वह चीख़ता है

चीख़ता ही रह जाता है

इतिहास पुरुष जैसा कोई एक

पर प्रेतों की आवाज़ है

जो इंसानों से ऊँची

कभी हो ही नहीं सकती।

स्रोत :
  • रचनाकार : अरुणाभ सौरभ
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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