वृथालाप-निषेध

vrithalap nishaedh

तिरुवल्लुवर

तिरुवल्लुवर

वृथालाप-निषेध

तिरुवल्लुवर

191

बहु जन सुन करते घृणा, यों जो करे प्रलाप।

सर्व जनों का वह बने, उपहासास्पद आप॥

192

बुद्धिमान जनवृन्द के, सम्मुख किया प्रलाप।

अप्रिय करनी मित्र प्रति, करने से अति पाप॥

193

लम्बी-चौड़ी बात जो, होती अर्थ-विहीन।

घोषित करती है वही, वक्ता नीति-विहीन॥

194

संस्कृत नहीं, निरर्थ हैं, सभा मध्य हैं उक्त।

करते ऐसे शब्द हैं, सुगुण नीति-वियुक्त॥

195

निष्फल शब्द अगर कहे, कोई चरित्रवान।

हो जावे उससे अलग, कीर्ति तथा सम्मान॥

196

जिसको निष्फल शब्द में, रहती है आसक्ति।

कह ना तू उसको मनुज, कहना थोथा व्यक्ति॥

197

कहें भले ही साधुजन, कहीं अनय के शब्द।

मगर इसी में है भला, कहें निष्फल शब्द॥

198

उत्तम फल की परख का, जिनमें होगा ज्ञान।

महा प्रयोजन रहित वच, बोलेंगे नहिं जान॥

199

तत्वज्ञानी पुरुष जो, माया-भ्रम से मुक्त।

विस्मृति से भी ना कहें, वच जो अर्थ-वियुक्त॥

200

कहना ऐसा शब्द ही, जिससे होवे लाभ।

कहना मत ऐसा वचन, जिससे कुछ नहिं लाभ॥

स्रोत :
  • पुस्तक : तिरुक्कुरल : भाग 1 - धर्म-कांड
  • रचनाकार : तिरुवल्लुवर

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