हमारे गाँव की विधवाएँ

hamare ganw ki widhwayen

अनुपम सिंह

अनुपम सिंह

हमारे गाँव की विधवाएँ

अनुपम सिंह

उधध रंगों में लिपटी औरतें

हमारे गाँव की विधवाएँ हैं

हमारी दादियाँ, चाचियाँ, माँएँ हैं

जवान भाभियाँ, बहनें हैं

वे उजाड़ के रंगों को ओढ़

अँधेरे में सिसकियाँ भर रही हैं

ज्ञान की खोज में जब पोते-पोतियाँ

कहीं दूर जा रहे होते हैं

तो विधवा दादियाँ दूर से ही

अपना प्रेमाशीष हवा में छोड़ देती हैं

विधवाएँ टूटी हुई बाल्टियाँ हैं

जिसमें सगुन का जल नहीं भरा जाता

विधवा हुई माँएँ बेटियों के ब्याह में

अपने आँचल से उनका सिर नहीं ढकतीं

बस! हारी आँखों से निहारती रहती हैं

मन ही मन क्षमा माँग लेती हैं माँएँ

विदा होती बेटियों से

और खो जाती हैं अपने ही जंगलों में

शुभ कार्यों से बेदख़ल ये विधवाएँ

मंगलाचार को रुदन के राग में गाती हैं

हमारे गाँव की विधवाएँ और बिल्लियाँ

एक जैसी हैं

बहुवर्णी स्त्रियाँ कब बनी विधवाएँ

बिल्लियों में किसने भरे ये रंग

विधवाएँ जान पाती हैं

ही बिल्लियाँ।

स्रोत :
  • रचनाकार : अनुपम सिंह
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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