विज्ञापन में छपी औरत
vigyapan mein chhapi aurat
वह थी किसी नए ब्लेड की तरह
तेज़, ख़ूँख़ार और नंगधड़ंग
सिर से पैर तक
किसी रंगीन उत्तेजना के तार में पिरोई
बेसबब कसी हुई प्रत्यंचा की तरह
मुँहफट
लाल-गुलाल और आदिम
वह थी किसी अनहोने अचरज की तरह
पास गया उसके तो उसने समझा वही
जो उसके धंधे की माँग थी
बेहद बाज़ारू क़िस्म की गद्देदार मुस्कान परोसते
स्वागत किया—आओ!
और फिर उघाड़ा—जिस पर उसे गर्व था
नंगी पीठ का चर्म!
ऊँची एड़ी से कुचलती
मेरा स्वत्व
देखा कनखियों से, कितना नशा!
मेरी आँखों में था शायद कोई झिझकता सवाल
कोई परेशानी-भरा आलम
पसंद न था उसे, कतई पसंद न था
उसकी आँखें तरेरती हिंसा को
कोई भी ढीठ सवाल
ग़ुस्से में लाल बगूला हो
वह पलटी मेरे देखते-देखते
बदबूदार बंबइया गाली उगल
इकदम अपने चिकने खोल में जा छिपी
विज्ञापन में छपी औरत!
भौचक मैं
सिर झुका जाने लगा रस्ते
तो लगा है, है कोई इंसानी चीज़
जो टनों मैल की परतों के बीच
भी ज़िंदा है ज़िंदा
कुड़बड़ा रही
कुछ और क़दम चला होऊँगा चार-पाँचेक
तो सुनाई दीं सिसकियाँ
देखा, जार-जार रो रही थी
विज्ञापन में छपी औरत
और उसका नंगधड़ंग जिस्म
गरम आँसुओं के
लिबास
में
छिप गया था!
- रचनाकार : प्रकाश मनु
- प्रकाशन : वनमाली कथा,अप्रैल-2024
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