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वनमाली

vanmali

कर्मदेव पाठक

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और अधिककर्मदेव पाठक

    मैं एक अभागा वनमाली

    पुष्पों से आँख चुराता हूँ

    अपने घावों को कुतर-कुतर

    काँटों को गले लगाता हूँ।

    मैं एक अभागा वनमाली

    पुष्पों से आँख चुराता हूँ।

    जंगल मेरे मन के भीतर

    जिसमें मैं ख़ुद खो जाता हूँ,

    मैं प्रेम सींच कर हर तरु में

    प्रतिपल इक डाल सुखाता हूँ।

    मैं एक अभागा वनमाली

    पुष्पों से आँख चुराता हूँ।

    मैं रंगों का इक सौदागर

    सहरा नवरंग बनाता हूँ,

    जीवन क्या मुझे रुलाएगा

    ख़ुद अपनी हँसी उड़ाता हूँ,

    मैं क्षितिज परे उन रंगों-सा

    घुलता हूँ, निखरता जाता हूँ

    मैं एक अभागा वनमाली

    पुष्पों से आँख चुराता हूँ।

    जंगल, बगिया, पोखर, नदियाँ

    इन सबको भी भरमाता हूँ

    जो पुष्प पूछते हाल मिरा

    तो बातें गढ़ता जाता हूँ

    भीतर से आहें भरता हूँ

    बाहर से ढोंग रचाता हूँ,

    मैं एक अभागा वनमाली

    पुष्पों से आँख चुराता हूँ।

    स्रोत :
    • रचनाकार : कर्मदेव पाठक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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