उस्मान अली

usman ali

नारायण सुर्वे

नारायण सुर्वे

उस्मान अली

नारायण सुर्वे

तगड़ा, ऊँचा

ताँबे जैसा रंग

रहन-सहन में भी दखनी ढंग

हैदराबादी...

पाँवों के ताक़तवर तने

दो बीवियाँ—ग्यारह बच्चे

मज़ाक में कहता था: ‘‘यह मेरा क़बीला है’’

‘‘तो जंग से वापिस आए थे

सन् छियालिस में जहाज़ पर थे

बग़ावत कर बैठे; अँग्रेज़ों से

कफ़न बाँध कर;

तीनो झंडे फहराए, गोले दागे

लोग सभी आए

मगर लीडर नहीं आए

हारे तो नहीं लेकिन

हारने के बराबर ही था वह मंज़र

बाद में मुन्सिपाल्टी में चपरासी बने’’

कहते-कहते रुक गया वह

“ऊपर जा—यह भेण्डीबाज़ार इस्कूल है

बड़े जनाब मिलेंगे,

उस्मान अली का सलाम बोलना

सलाम करना

जल्दी वापिस आना’’

फिर से चलते-चलते कहने लगा :

‘‘दो बीवियाँ हैं मेरी

एक चूल्हा सम्हालती है

दूसरी, होजरी का काम

मालूम नहीं, ये औरतें भी

कितनी समझदार होती हैं,

सम्हालती हैं मुझे...

और क़बीले को भी...’’

‘‘बड़ा लड़का मांजा-पतंग बेचता है चौपाटी पर

और मैं शाम को छुट्टी के बाद

‘आसान कायदा’ पढ़ाता हूँ बड़ों को

सब लेटर बाँटने के बाद

घर जाएँगे, खाना खाएँगे

तुम मुसलमान के घर खाना खाओगे ना...

तुम्हें मुसलमान बस्ती में डर लगता है क्या...

अबे गधे, आदमी सब जगह बराबर होते हैं

काम की जगह एक है तो

घर की जगह भी एक रहेंगे

जहाज़ पर की ज़िंदगी में मैंने यही सीखा है।’’

उस्मान अली खलासी

छियालीस के ग़दर का

नियमित रूप से नमाज़ पढ़ता था

छोटी सी चटाई, और सफ़ेद-सा रूमाल

होता था उसके पास

नमाज़ पढ़ते समय कुछ भी हो

वह बिना भूल से घुटनें टिकाता था

और तब तक मैं उसके साहब की

‘बेल’ सम्हालता था।

बाल-बच्चों वाला उस्मान अली

ग़दर वाला उस्मान अली

मज़हब सम्हाल कर भी दोस्ती निभाने वाला

उस्मान अली

काफ़ी महीने बीत गए

उस्मान अली आया ही नहीं

उसका पता नहीं चला।

चिट्ठियाँ बाँटते-बाँटते

बेचैन-सा उसके दरवाज़े पर खड़ा रहा मैं।

उस्मान अली को पहचान नहीं सका।

पीला, दुबला-पतला

“क्या बात है उस्मान अली?”

“आओ, अंदर आओ

रसूल, चाय की प्याली ले आना मामू को।”

बैठ गया मैं।

“चार महीनों में घर के

ग्यारह आदमियों को क़ब्र में दफ़ना के बचा हूँ

कभी इधर के दंगों में कभी हैदराबाद के

क़ब्रिस्तान में दौड़ता रहा

माँ-बाप इसी झटके से गए

भाई भी गया,

एक बीवी मर गई

और हम दोनों के बच्चे भी।

अब दिल नहीं लगता

कमरा बेच डालूँगा

सबके पैसे बेबाक कर

सिकंदराबाद चला जाऊँगा

वहीं पर क़ब्र में दोनों पाँव रखूँगा

अपने मुल्क में....

सबको मेरा ख़ुदा हाफ़िज़ कहना।’’

सुन कर मेरे होश उड़ गए

कैसे समझा

उसी का जुमला याद आया :

“हारे तो नहीं : लेकिन

हारने के बराबर ही वह मंज़र था’’

ख़ुदाहाफ़िज़,

उस्मान अली,

ख़ुदा हाफ़िज़!

स्रोत :
  • पुस्तक : साठोत्तर मराठी कविताएँ (पृष्ठ 26)
  • संपादक : चंद्रकांत पाटील
  • रचनाकार : नारायण सुर्वे
  • प्रकाशन : साहित्य भंडार
  • संस्करण : 2014

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