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उजड़ी बस्ती

ujDi basti

सर्गेई येसेनिन

अन्य

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सर्गेई येसेनिन

उजड़ी बस्ती

सर्गेई येसेनिन

और अधिकसर्गेई येसेनिन

    लुप्त हो गया, बता कहाँ तू, मेरे बचपन के घर!

    जिसको गिरि ने स्थान दिया था अपनी गोदी में सुखकर,

    जिसके आगे मिला हुआ था नीलम से फूलों का खेत,

    जिसके इधर-उधर फैली थी पीली और सुनहली रेत।

    लुप्त हो गया, बता कहाँ तू मेरे बचपन के घर!

    पास नदी थी और पार से मुर्गे की ध्वनि आती थी,

    वही किसी ग्वाले की गोरी छोरी गाय चराती थी,

    लहरों से क्रीड़ा करने को दिन की किरणें आती थी,

    रातों को जल की धारा में तारक पंक्ति नहाती थी।

    पास नदी थी और पार से मुर्गे की ध्वनि आती थी!

    प्रात: काल उधर पूरब से सूरज नित्य निकलता था,

    और गाँव के ऊपर होता पश्चिम दिशि में ढलता था,

    और उठा करती थी आँधी उस कोने के जंगल से,

    और हुआ करती थी वर्षा उस घाटी के बादल से।

    प्रात: काल उधर पूरब से सूरज नित्य निकलता था!

    किंतु समय के प्रलय-घनों ने कब इस बस्ती को घेरा,

    कब मूसलधारा जल बरसा, ढहा-बहा वह घर मेरा,

    हो बर्बाद गई कब मेरे नीले फूलों की खेती,

    चली गई कब रूठ यहाँ से कंचन चमकीली रेती।

    किंतु समय के प्रलय-घनों ने कब इस बस्ती को घेरा!

    स्रोत :
    • पुस्तक : चौंसठ रूसी कविताएँ (पृष्ठ 130)
    • रचनाकार : सर्गेई येसेनिन
    • प्रकाशन : राजपाल एंड संस
    • संस्करण : 1964

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