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उजाले की पहचान

ujale ki pahchan

गोविंद माथुर

अन्य

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गोविंद माथुर

उजाले की पहचान

गोविंद माथुर

और अधिकगोविंद माथुर

    शहर की धमनियों में

    घुला हुआ विष

    धीरे-धीरे छीलता जा रहा है

    हमारा जिस्म

    शरीर से रिसते घाव

    बहने लगे हैं

    आँच पाकर

    रोशनी का रंग

    गहरा नीला होता जा रहा है

    सारे चेहरे छिल कर

    हो गए हैं सपाट

    किसी की भी अलग से

    पहचान नहीं रही

    ऐसे में क्या अर्थ रखता है

    कोई एक नाम

    जिसे लगातार

    गालियाँ दिए जा रहे हैं

    जबकि हमारा ख़ुद का चेहरा

    पहचानना मुश्किल है

    कॉफी के प्यालों के साथ

    व्यवस्था पर थूका गया ज़हर

    हमारे ही जिस्म में

    तैरता रहता है हर समय

    हम अपनी जगह बैठे-बैठे

    अंदाज़ लगाया करते हैं

    अँधेरा बढ़ते जाने का

    अँधेरी सुरंगों को

    पार करते हुए हम

    अभ्यस्त हो गए हैं

    अँधकार के

    लगातार फैलते विष ने

    हमें इतना बना दिया है

    नपुसंक कि

    अगली सुरंग से

    गुज़रते हुए

    हमें उजाले की

    पहचान ही नहीं रही

    स्रोत :
    • रचनाकार : गोविंद माथुर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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