महानगर में कवि

mahangar mein kawi

केदारनाथ सिंह

केदारनाथ सिंह

महानगर में कवि

केदारनाथ सिंह

इस इतने बड़े शहर में

कहीं रहता है एक कवि

वह रहता है जैसे कुएँ में रहती है चुप्पी

जैसे चुप्पी में रहते हैं शब्द

जैसे शब्द में रहती है डैनों की फड़फड़ाहट

वह रहता है इस इतने बड़े शहर में

और कभी कुछ नहीं कहता

सिर्फ़ कभी-कभी

अकारण

वह हो जाता है बेचैन

फिर उठता है

निकलता है बाहर

कहीं से ढूँढ़कर ले आता है एक खड़िया

और सामने की साफ़ चमकती दीवार पर

लिखता है ‘क’

एक छोटा-सा

सादा-सा ‘क’

देर तक गूँजता है समूचे शहर में

‘क’ माने क्या

एक बुढ़िया पूछती है सिपाही से

सिपाही पूछता है

अध्यापक से

अध्यापक पूछता है

क्लास के सबसे ख़ामोश विद्यार्थी से

‘क’ माने क्या

सारा शहर पूछता है

और इस इतने बड़े शहर में

कोई नहीं जानता

कि वह जो कवि है

हर बार ज्यों ही

उठाता है हाथ

ज्यों ही उस साफ़ चमकती दीवार पर

लिखता है ‘क’

कर दिया जाता है क़त्ल!

बस इतना ही सच है

बाक़ी सब ध्वनि है

अलंकार है

रस-भेद है

मैं इससे अधिक उसके बारे में

कुछ नहीं जानता

मुझे खेद है।

स्रोत :
  • पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 13)
  • संपादक : परमानंद श्रीवास्तव
  • रचनाकार : केदारनाथ सिंह
  • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
  • संस्करण : 1985

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