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इंतज़ार के 'ज' में जो नुक़्ता है

intzar ke j mein jo nuqta hai

बाबुषा कोहली

बाबुषा कोहली

इंतज़ार के 'ज' में जो नुक़्ता है

बाबुषा कोहली

तुमने देखा नहीं

किसी ग़ाफ़िल शरीर लड़की को

सब्र की इबारत बनते

इसलिए!

इसलिए

तुम आना एक दिन

बारह घंटे की देरी से चल रही

संपर्क क्रांति एक्सप्रेस बन के

तुम सुनना ग़ौर से

अनाउंसर की आवाज़

जिसने देखा औरत को वेटिंग रूम में बदलते

जिस चौराहे की भीड़ में तुम गुम गए थे

वहाँ का सिग्नल अब तलक रेड हुआ पड़ा है

उसी चौराहे पर ख़रीदा है मैंने

मोगरे का गजरा

एक सैलानी बता रहा था अपनी महबूबा को फ़ोन पर

कैसा गमकता हुआ वेटिंग हॉल है

इस शहर का

जैसे मोगरे का बाग़ हो

तुम गिनना

उम्र के साल और चौंकना

कि कुछ औरतें कभी बूढ़ी क्यों नहीं होतीं

दरअसल,

वे अपनी तमाम ख़्वाहिशें हवा में यूँ उड़ाती हैं

जैसे काग़ज़ का हवाई जहाज़ उड़ाते हैं बच्चे

तुम देखना

कुछ औरतें कभी बूढ़ी क्यों नहीं होतीं

और सीखना

बचपने की क्लास में बुज़ुर्ग होने का हुनर

तुम परखना

इंतज़ार के 'ज' में जो नुक़्ता है

औरत के माथे की बिंदी है

तुम पढ़ना

चौराहे, वेटिंग हॉल और नदी के घाटों पर चिपके इश्तेहार

इन सस्ते पर्चों को कोई भूल से कविता कह बैठे

तो उसे माफ़ कर देना

मगर तुम आना

यह देखने कि इस शहर के घंटाघर की घड़ी में क्या बजा है

स्रोत :
  • रचनाकार : बाबुषा कोहली
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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