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पलाश के प्रसून

palash ke prasun

अनुवाद : एम. रंगय्या

दाशरथि

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पलाश के प्रसून

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    हर वर्ष-सा इस वर्ष भी

    व्यर्थ ही विकसित यह पलाश विटप

    व्यथित मानव-समूह के

    कथा-कथन में व्यस्त है आज सतत

    एक दिन,

    बाल इंदु-सा वक्र हो

    अनुराग का चक्र हो

    सुकुमार कामिनी के

    सुंदर पयोधरों पर

    नख क्षत-से दृष्टिगोचर

    पलाश के ये प्रसून—

    एक दिन

    शुक कन्या के तरुण-अरुण चंचु बन

    युवा जोगिनियों के भुजाग्रों पर

    नर्तित गेरुए चेलांचल बनकर

    आँखों के तारे बने ये पलाश के प्रसून—

    आज—

    नियंता के अत्याचारों का शिकार बने

    महान् वीरों के उर-सा

    मालिकाओं का ढेर बनकर

    धरा के जन-जन के कंठों में

    दोलायमान है अति शोभाकार

    ये किस युवती के हास को

    प्रकट करने वाले अरुण अधर हैं!

    यह किस सुंदर कन्या के

    गालों पर विलसित द्युतिमय लालिमा है

    ये किस समर शूर की नसों में

    नर्तित त्याग रुधिर नदी की तरंगें हैं

    ये किन स्वतंत्रता दाह-प्रस्तों के

    मस्तिष्क की अग्नि के कौन रूप हैं?

    निराशा के अंधकार में

    चकाचौंध लिए कांति दीप हैं!

    एक-एक पलाश का कथित

    करुणाद्र गाथाओं के

    काव्य-निर्माण के लिए

    कलम अग्रसर होती है

    मेरे काव्य के नायक

    हैं रुद्रवीणा के गायक

    मुसकुराते मृत्यु गह्वर में

    बढ़ने वाले मेरे सहोदर हैं

    हे भाइयो!

    वसंत तरु की शाखाओ!

    तुम्हारे रुधिर से फाग खेलने वाले

    नियंताओं को

    उनका समर्थन करने वाले

    हंतकों को

    काल काल बन डँसेगा

    यह निश्चित है

    सूखे वसंत की वन-वाटिका

    फिर से होगी पल्लवित

    “छिन्नोपि रेहरि तरु:

    क्षीणोप्युत चीयते पुनश्चंद्र”

    समर असुर का नाश हो जाए

    शांति देवता का हास छा जाए

    स्वंतत्रता, सुजनता और

    भ्रातृभाव विलसित हो जाए।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द से शताब्दी तक (पृष्ठ 125)
    • संपादक : माधवराव
    • रचनाकार : दाशरथि
    • प्रकाशन : आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी
    • संस्करण : 1985

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