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स्वर्ग-नरक और मल्लिका

swarg narak aur mallika

अनुवाद : शंकर लाल पुरोहित

देवदास छोटराय

अन्य

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देवदास छोटराय

स्वर्ग-नरक और मल्लिका

देवदास छोटराय

और अधिकदेवदास छोटराय

    मल्लिका, तेरे लिए बार-बार गया स्वर्ग-नरक में

    जीत पाया मन तेरा, जीती देह तेरी।

    मल्लिका बहुत कष्ट है स्वर्ग में,

    उदासीन सौधमाला

    ऑक्सीजनहीन पवन,

    राह के दोनों ओर

    नम्र श्वेत साँप

    बहुत क़ीमती वेश्या,

    अनुतापहीन स्वरमाला

    स्वर्ण खड़ाऊँ पहन निर्जन में रोते हैं ईश्वर।

    मल्लिका ! नरक बहुत मनोहर,

    तेरी आँख के आँसू-से

    झलमलाता निरीह तगर,

    जगह-जगह रबर ट्रक

    जलने की चिरायंध,

    रक्त पाप की गंध

    कितनी सुरम्य आवर्जना,

    दुःख-सी सुरक्षित बंदीशाला

    साँवली गणिकाएँ,

    कुत्ते और छिलके भरे

    गली-कूचे में और

    अनेक परिचित लोग।

    मल्लिका,

    तब तू राजी थी मेरे संग

    नर्क जाने को,

    जिस आलोक में लुटता कौमार्य

    वह आलोक भरा था घर में,

    मैंने कहा

    उठ चल,

    नर्क को चलें,

    रिक्शा बुला लाते-लाते

    तू कपड़े पहन और मैं चला बाज़ार

    लौटने तक सब अंधकार भरा,

    पराहत आशा

    और मेरे हृदय में भरे लाल कीड़े

    हाँ, और फिर कौन आता,

    प्रवंचक पवन के सिवा।

    मल्लिका, तेरे लिए गया उदासीन स्वर्ग को

    श्वेत पताका उड़ती निश्चल आलोक में

    मल्लिका,

    तेरे लिए मैं गया नर्क, जहाँ

    संतप्त प्रतिज्ञा जलती राजधानी की सड़क के दोनों ओर

    तुम थी कहीं,

    तूने टाल दिए अपने वचन

    कभी हृदय दिया

    और अर्पित किया शरीर।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 228)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : देवदास छोटराय
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

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