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स्वगत-2

swagat 2

अनुवाद : राजेंद्र प्रसाद मिश्र

सच्चिदानंद राउतराय

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और अधिकसच्चिदानंद राउतराय

    सपना टूटने के भय से

    सोने का बहाना करता हूँ

    दुनिया को रू-ब-रू देखने से

    इतना क्यों मैं डरता हूँ!

    जीवन बड़ा है दुर्गम,

    सिर्फ़ शिलाएँ, कठोर कंकड़ हैं

    इसीलिए कपट-भरी नींद

    कभी-कभी

    इतनी अच्छी लगती है।

    मिथ्या को मैं स्वादिष्ट मानता हूँ

    मृदु मानता हूँ यह अंधकार।

    समस्त चैतन्य अहा

    यदि खो जाता

    इस अंधकार में

    (क्षितिज में जैसे प्रांतर!)

    मेरी संहारक मूर्ति लेकर जो आता है

    उसे देख चित्त यदि काम से भर जाता है,

    झूठमूठ करता है यदि रति,

    मेरी शुम्भ-निशुम्भ सत्ता मिटेगी कैसे,

    अंधकार में?

    रोशनी का तो वह मात्र घटना-परिवर्तन है।

    मृत्यु यदि जीवन का दृश्यान्तर हो

    यवनिका उठने से पहले ज़रा

    बत्तियाँ बुझ जाने जैसा,

    तो

    हाय निद्रा कहाँ? कहाँ है भूल जाना?

    मन करता है इस शरीर को अति सूक्ष्म बनाकर

    बोध-शून्य कर

    बुझ जाता मैं अंतत: अबाध

    समय पर।

    (शून्य में नहीं, ही आकाश में।

    क्योंकि आकाश भी तो चेतन है।

    उसमें भी है गुण।)

    भूल जाता सब-कुछ।

    जो कुछ है,

    जो नहीं—सारे संपर्क।

    स्वयं को आवृत्त कर एक अपर्याप्त

    नेति के पर्याय में।

    तब जाकर चाहता शांति!

    शांति ही क्यों?

    अनंत मुक्ति!

    एक शून्य विरति की लय में।

    विदेही मैं शुभ्र समन्वय में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बसंत के एकांत ज़िले में (पृष्ठ 48)
    • रचनाकार : सच्चिदानंद राउतराय
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1990

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