सूत्रपात क्रांति का

sutrapat kranti ka

मेधा झा

मेधा झा

सूत्रपात क्रांति का

मेधा झा

और अधिकमेधा झा

    कलप कर सुनाती व्यथा

    रोती उस स्त्री ने कहा,

    क्या होता है लिखने से?

    बेवजह कलम घिसने से?

    जैसा था समय, जैसी थी प्रथा

    कल भी रहेगा, बीते कल जैसा।

    चाहे कितना भी चीख़ लो

    कितना भी तुम लिख लो,

    कुछ बदला है, बदलेगा।

    तुम्हारी आवाज़ कौन सुनेगा?

    सुनती रही वह क्षण भर

    मुस्कुराहट आई अधर पर।

    अत्याचार को आज समझी हो

    क्या यह बदलाव नहीं है?

    हक है बात तुम्हें कहने का,

    क्या यह इंकलाब नहीं है?

    वर्षों तक छाया सन्नाटा था

    अन्याय का घना साया था

    क़िस्मत मान उसे अपनाया था

    बेड़ियों को ढोना ही उसे आया था।

    दर्द असहनीय हुआ, तब उसने लिखा।

    प्रतिध्वनित हुआ—हाँ ! यह मेरी व्यथा।

    ग़लत को ग़लत जब उसने समझा।

    पहला चरण उसने, है पार किया।

    निकली जब थी, अकेली वह थी,

    देखा मुड़कर, कारवाँ संग चल रहा।

    सम्मिलित स्त्रियों ने शंखनाद किया,

    स्वतंत्रता का स्वाद अब सबने चख़ा।

    क्रांति का हो चुका है सूत्रपात!

    थमेगा नहीं अलख, रुकेगी नहीं आग।

    चहुँ ओर सदा अब आने लगी।

    सबकी पीड़ा घनीभूत हुई।

    बिजली कड़की, घन बरस पड़े।

    ठिठका सूरज फिर निकल पड़ा।

    रोको नहीं! होने दो नवीन सूत्रपात।

    यह है नई सुबह, यह नया प्रभात।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मेधा झा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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