जाड़े की गुनगुनी धूप

jaDe ki gunguni dhoop

विंदा करंदीकर

विंदा करंदीकर

जाड़े की गुनगुनी धूप

विंदा करंदीकर

जाड़े की गुनगुनी धूप जब पड़ती है

स्थितप्रज्ञ काली चट्टान पर

मुझे लगता है उस क्षण उसमें भी

फूटता होगा इच्छा का अंकुर

जाड़े की हल्दिया धूप जब

मुकुट पहनाती है वृद्ध वटवृक्ष को

—मुझे लगता है देखकर ताल में

हाथ फेरता होगा वो भी अपनी दाढ़ी पर!

जाड़े का थरथराता सूरज जब

सिर टिकाता है घाटी की छाती में

—मुझे लगता है उसके वक्ष से

फूट पड़ता होगा गर्म झरना

जाड़े की गुनगुनी धूप सहलाती जब

आजी की उघरी पीठ

—भरमाकर मन-ही-मन सोचती होगी वो

ओढ़ा है उसने फिर पेटीकोट ज़रीदार

जाड़े की गुनगुनी धूप मुँह फुला के

रिसाने का ढोंग कर बैठती है घास के मैदान पर

—मुझे लगता है उसको भी ज़रूर

ऐसा ही कुछ लगता होगा।

स्रोत :
  • पुस्तक : यह जनता अमर है (पृष्ठ 25)
  • रचनाकार : विंदा करंदीकर
  • प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
  • संस्करण : 2001

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