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सूखते गुलाबों के नाम

sukhte gulabon ke nam

प्रदीप्त प्रीत

अन्य

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प्रदीप्त प्रीत

सूखते गुलाबों के नाम

प्रदीप्त प्रीत

और अधिकप्रदीप्त प्रीत

    मुझे डर था कि मैं धकेल दिया जाऊँगा

    परदे में छिपकर खिड़की से झाँकती उन आँखों के बीच

    जिनके बारे में यह समझा जाता रहा है कि

    वे कहीं शून्य में खोई हैं

    क्योंकि माहवारी का दर्द उन्हें बेचैन किए जा रहा है

    जबकि वे शून्य में नहीं खोई होती हैं।

    मैं सोचकर डर जाता था कि

    मैं तबाह हो जाऊँगा उस कलाकार की तरह

    जो सफ़ेद काग़ज़ पर रंगों को बिखेर देता है

    करता है बेजोड़ कैलिग्राफ़ियाँ

    जिनमें लिखे शब्द कई-कई बार उस महबूब के होते हैं

    जिसके एक मात्र शब्द ने कर दिया

    उसे दुनिया से अलग-थलग।

    इसी डर से उसका हाथ थामे हुए

    भीड़ के बीचोंबीच कहा मैंने—

    'मत जाओ'

    पता नहीं उसने समझा कि नहीं

    ये सिर्फ़ दो शब्द भर नहीं हैं

    संवेदनाओं के बहाव में खड़े पुल के दो स्तंभ हैं

    जो जोड़ देते हैं पूरी की पूरी यात्रा को

    कहीं छुप-छुपाकर देखने से शुरू हुई

    और ख़त्म कर दी जा रही है

    किसी डायरी में सूखते गुलाब की तरह।

    मैं तुम्हें भेज रहा हूँ प्रणय-निवेदन

    तरल होने की जानिब मुझसे प्रेम करो

    और बचा लो मुझे 'कठिन काव्य का प्रेत' होने से।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रदीप्त प्रीत
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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