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सॉनेट

sonnet

अनुवाद : उपेंद्रकुमार दास

गुरु महांति

अन्य

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और अधिकगुरु महांति

    यदि मेरे इस मन की रक्त-मांस चमड़े की पोशाक

    आज अच्छी नहीं लगती है, आज अगर इस निस्तेज पृथ्वी का शरीर

    फीके चाँद-तारों का आलोक ओढ़कर सो जाए

    आज अगर एकाकार समय की देह और अदेह

    तो अपने निर्मोक को गिर जाने दो, बेणी और आँख की भ्रुलता और

    अपने कंकाल को समय और चाँद के आलोक से सफ़ेद हो जाने दो

    मेरे शरीर का स्वास्थ्य और रक्त-मांस चमड़े की पोशाक

    गिर पड़ने दो अपने उपेक्षित विसर्जित शरीर पर।

    पृथ्वी की इस देह में तुम्हारे मन का संधान खोजते हुए

    आज मुझे अपने देह के उपकूल में पहुँचने दो

    इसलिए मैं तुम्हे ढूँढ़ रहा हूँ रक्त में, अपने शरीर की सीमा में

    लेकिन कहाँ है तुम्हारी आत्मा, कहाँ है तुम्हारे मन का शरीर?

    मैं तुम्हें प्यार करता हूँ, पूंजीभूत इस शरीर में आत्मा मेरे मन की पिपासा है

    इसलिए मै तुम्हारी देह खोज रहा हूँ अपनी इस देह में

    मेरी सब आशा और निराशा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 59)
    • रचनाकार : गुरुप्रसाद महंति
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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