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सुलगता संवाद

sulagta sanvad

दर्शन बुट्टर

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दर्शन बुट्टर

सुलगता संवाद

दर्शन बुट्टर

और अधिकदर्शन बुट्टर

     

    जिज्ञासा

    गुरुदेव! 
    मैं अपने डगमगाते साये समेत 
    तेरी विशाल चाँदनी 
    रूबरू होती हूँ

    पैरों तले से छीजती जा रही 
    भुरभुरे विश्वासों की रेत 
    मैं मुंतज़िर हूँ 
    तेरी मुट्ठी में ज़रा-सी ज़मीन की

    जब भी तेरे सुच्चे1 बोलों का 
    सौंफ़िया साँसों के साज़ पर गुनगुनाती हूँ 
    तो हवा प्याज़ी एहसास से 
    मन की मिट्टी में 
    अंकुराने लग पड़ती है

    रूह की ड्योढ़ी पर 
    तेरी आमद का सुलक्षण पल 
    लक्ष्य-बिंदु है मेरे सुकून का 
    तेरी सहज दृष्टि 
    तृप्त करती मरुस्थली मुश्किलों की

    मैं तुझे पानी-सा 
    बंजर भूमि पर फैला देखती हूँ
    महक-सा 
    फ़िज़ा में घोल कर तकती हूँ

    तू अपने ज्ञान उपवन के 
    दो फूल मेरे भिक्षा पात्र में डाल 
    दम घुटा पड़ा है ताज़ी महक बिन

    तू अपनी सुलगती ख़ामोशी को 
    बोलने के लिए कह 
    अनुभव के सूक्ष्म पलों की कथा छेड़

    और बात कर कोई 
    वेदों-किताबों से पार की 
    कि मेरी रात कट जाए...


    गुरुदेव

    हे सखी! 
    सच की परिभाषा को 
    आवश्यकता नहीं शब्द-जाल की 
    तबसरों की दिलकश इबारत 
    नहीं है जीवन का फ़लसफ़ा

    मुसाफ़िर अकेला नहीं होता 
    यदि कोई 'बोल' हमसफ़र हो 
    अर्थों के जंगल में विचरते 
    सुच्चे शब्द 
    मस्तकों को चीर कर राह तलाशते

    अँधेरों में क़ैद धड़कते साये 
    सूरज चढ़ने का इंतज़ार नहीं करते
    अपने नक़्शों में से 
    प्रज्वलित किरणें स्वयं जगाते

    तू मेरे साथ नहीं 
    मेरी बात मध्य के 
    किरदारों से एकसुर हो

    आँखें बंद कर यक़ीन न करना 
    हवा में तैरते मेरे बोलों पर 
    इन पर पैर टिकाते 
    चढ़ जाना 
    तलाश की उच्चतम मंज़िल पर

    कोई सफ़र 
    पैरों से नहीं 
    सिरों से तय करते 
    पैरों तले राहों से पहले 
    सोचों में से शूल चुनते

    सच के केसरी फूल 
    खिलते हैं 
    सुर्ख़ स्वप्नों की वादियों में 
    यदि 
    रूह की पाकीज़गी साथ-साथ हो...

    स्रोत :
    • पुस्तक : महाकंपन (पृष्ठ 12)
    • रचनाकार : दर्शन बुट्टर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2016

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