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थार

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अनिल मिश्र

अन्य

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और अधिकअनिल मिश्र

    सम के प्रदेश में मैंने

    मन-ही-मन सोचा

    किसी टीले के सुरीले मोड़ पर

    एक चाँदनी रात गुज़ारी जाए

    इस विचार के साथ हवा में लहराने लगी

    किसी विशाल हरित प्रदेश की कल्पना

    दुनिया में कई रत्न

    केवल बिखरी मिट्टी हैं

    जिन्हें निर्मूल्य समझकर

    अक्सर आगे बढ़ जाते हैं लोग

    रेगिस्तान में कभी इतना बसंत नहीं आता

    कि ढाणियों पर खिल सकें

    लहकते फूल

    लेकिन घाघरे चोली को

    बड़े चटख रंग से रंगता है रंग-रेज़

    ये ऊँटों की धरती है

    उचक-उचक चलने की

    शर्मीले गोडावण खोजते रहते हैं

    अपने घास के नंदन-कानन

    लेकिन एक-एक कर कहीं उड़ जाते हैं

    परदेश से आए कुरज

    जब तारे हँसते हैं एक साथ

    आसमान में काल को पराजित कर

    ड्योढ़ी से धीरे-धीरे उतरता है चाँद

    और बेफ़िकर होकर

    दूर-दूर तक चरता है

    भेड़ों के साथ बची-ख़ुची घास

    सम में कुछ भी सम नहीं है

    धरातल ज़िंदगी

    पचास डिग्री तापमान पर

    असमंजस में होती है प्रकृति भी

    द्रव में बदलने लगता है ठोस

    और द्रव उड़ने लगता है

    हवा में वाष्प बनकर

    क़रीब आते-जाते हैं मुफ़लिसी के दिन

    और सघन होने लगती है

    उसे अलगोजा की तरह जीने की धुन

    स्रोत :
    • रचनाकार : अनिल मिश्र
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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