स्किज़ोफ्रेनिया

skizophreniya

रेनू यादव

रेनू यादव

स्किज़ोफ्रेनिया

रेनू यादव

आवाज़ों की दुनियाँ में

अपनी भी एक आवाज़ है

जो सुनकर कर दी जाती है

अक्सर

अनसुनी

घोलना चाहता हूँ

हर रोज़

मिठबोली शक्कर

पर

रात की सितियाई धरती

को एक झटके में

सोख लेती है

सुबह की धूप

पछुआ बयार-सी

हरदम बहा करती हैं

प्रियजनों की बातें

प्रियजनों की चमड़ी को

खखोर कर

देखना चाहता हूँ

क्या उनमें ख़ून है?

या रूढ़ परंपराओं से

बनाना चाहते हैं

संस्कारों की सड़क

मैं क्षितिज पर लटका

उन सड़कों पर

बेशरम टहल रहा हूँ

और देख रहा हूँ

उनकी देह में

ख़ून

ख़ून नहीं

कतरैल है

किसी जलजली

बखोरनी बुढ़िया

की नाख़ून में

अमृत है

या ज़हर

अम्मा की पुरनम

में मेरे होने से दर्द है

या होने से

पत्नी की ख़ामोशी में

प्रेम है या घृणा

पिता की नज़रों में

कठोरता है

या तरलता

सब कुछ गड्मड्

क्यों है

क्यों है दुनियाँ

समझ से परे?

चमगादड़ ज़मीन पर चल रही हैं

साँप छत पर उल्टा रेंग रहे हैं

बिच्छु देह पर लोट-लोट कर

निहाल हैं

और गिद्ध प्रेम के बहाने

मुझे नोचने को

हैं तत्पर

और उन सबसे गठबंधन कर

मेरे आत्मीय

मधुर मुस्कान लिए

ताक में बैठे हैं

नीचा दिखाने

मेरे निकम्मेपन

को सहलाने

कूएँ की गहराई से चीखती

मेरी आवाज़

अपनों में छिपे

दुश्मनों का अंत चाहता है

पर प्रेम

खड़ा है राह रोके

इसलिए

मैं ख़त्म करना चाहता हूँ

अपनी ही कहानी

जिन्हें समझ आते हुए भी

समझ नहीं आता

दुनियाँ की भीड़ में

मैं भी हूँ

जिसे देखकर भी

कर दिया जाता है

अक्सर अनदेखा

और

मैं सोच में पड़ जाता हूँ

क्या

मैं सचमुच हूँ?

स्रोत :
  • रचनाकार : रेनू यादव
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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