सितुहा

situha

अरुण शीतांश

जाने कितने हाथों से गुज़रे

उन्हें भी क़ैद किया लोगों ने

उसकी स्वतंत्रता छीनी हक़ छीना

परिवार से बिछुड़े

कितना स्वच्छंद था

सागर किनारे

पुनिया छील रही थी खीरा

इससे पहले पिता ने पटका फाड़ा

पत्थरों पर इतना रगड़ा इतना रगड़ा

पास वाले ने किया झगड़ा

अपने-अपने लिए।

वह इतना आबदार था

इतना तेजस्वी इस्पात था

'मोहनी' नाम रखा था उसका

कई घर में कई नाम

आम के मौसम में उसकी खोज होती तेजी से

और उतने ही तेजी से वे ख़त्म होते रहे

मात्र औज़ार नहीं था सितुहा

एक विचार था, जीवन था, आनंद था

शैतानों के घरों में भी वही सुंदरता थी

अब सितुहा मिलता है पर सस्ता नहीं

अब बाज़ार का मटरमाला है

दुआरी पर टाँगनेवाला शिवाला है

बनाने वाले का निकलता दिवाला है

ख़ुशी है समुद्र के पेट में पल रहा है अभी भी

सितुहा-समुद्र-सा और समुद्र सितुहा सा...।

स्रोत :
  • पुस्तक : एक ऐसी दुनिया की तलाश में (पृष्ठ 24)
  • रचनाकार : अरुण शीतांश
  • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
  • संस्करण : 2011

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