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शिव को उलाहना

shiv ko ulahna

अनुवाद : शांतिकुमार नानूराम व्यास

बहादुरचंद छाबड़ा

बहादुरचंद छाबड़ा

शिव को उलाहना

बहादुरचंद छाबड़ा

जिसका रूप है, गुण है, जिसके पास घर है, कोई वस्तु

है, और शरीर पर वस्त्र हैं, शक्ति में जो देवों से भी बढ़कर है, ऐसा वह

जो कोई है, उसे यह प्रणामांजलि है।

कैलास पर्वत पर कोई अलौकिक शक्तिशाली पंचास्य (पंचमुखी शंकर

अथवा सिंह) है, जो गजानन (गणेश अथवा हाथी का मुख) को देखकर क्रुद्ध

नहीं होता, अपितु संतुष्ट होता है।

उस पंचवक्त्र (शिव अथवा सिंह) का चरित्र निस्संदेह अपूर्व है,

जिसकी गोद में शिवा (पार्वती अथवा लोमड़ी) निर्भय होकर खेलती है।

किसी खिलाड़ी कपाली (शंकर अथवा अघोरी) ने उस समय एक

महान् कौतूहल उत्पन्न कर दिया, जब उसने अनंग (कामदेव अथवा जिसका

कोई शरीर नहीं) को भस्म करके उसकी भस्म को अपने अंगों पर मला।

वामांग में गौरी, सिर में गंगा तथा मस्तक पर बाल-चंद्रमा की कला

धारण करके उस परमेश्वर ने, युक्तिपूर्वक कामदेव को जलाकर, चौथी रमणी

रति से भी विवाह कर लिया।

गंगा का तो तुमने सिर पर अभिषेक किया, गौरी को सिंहासन पर

बैठाया, चंद्रमा की कला से पगड़ी बाँधी; हे ईश, इस प्रकार तुम्हारे यहाँ

स्त्रियों का ही प्रशस्त राज्य है।

यदि कहीं ससुर की संपत्ति से दामाद धनी बन जाता है, तो इसका

उदाहरण गिरिराज (हिमालय) की पुत्री के पति गिरीश (शंकर) हैं।

मैं यह कैसे मान लूँ कि अहंकार बंधन का कारण है, क्योंकि 'शिवोऽहम्'

(मैं शंकर हूँ) कहकर मनुष्य बंधनों से छूट जाता है।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 705)
  • रचनाकार : बहादुरचंद छाबड़ा
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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