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शिशिर ऋतु

shishir ritu

अनुवाद : चावलि सूर्यनारायण मूर्ति

विश्वनाथ सत्यनारायण

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और अधिकविश्वनाथ सत्यनारायण

    1

    ज्यों निर्मल दर्पण में देखते हैं त्यों नेपाली-

    डिबिया में निज 'चलिकंठ' देखते-देखते।

    जाने कब आएगी सास, वैर निकालने को

    अभी से पैरों के तलुओं को सेंकते-सेंकते।

    आधी नींद जगाकर माँ का अन्न खिलाना

    जान, भूख कह रोते भात माँगते-माँगते।

    नंगा बदन, फटी देह और लिए बिखरे

    बाल धूल सने गली-गली भागते-भागते।

    पकड़ शाम को लगा तेल, संवार बाल धो

    बदन जल में माँ के तन पोंछते-पोंछते।

    ले लेकर जंभाई शिशिर में माँ की गोद में

    ही नींद लेते बच्चे शीघ्र ही ऊँघते-ऊँघते॥

    2

    उर चंदन सिर पर धुली हुई पगड़ी

    लेकर ठाठ से बारात का मुखिया आया।

    तालियाँ पीटते और बजाते हुए सिंगियाँ

    हो हो' शोर मचाते दंगल का दल आया।

    छाते की छाया में गुच्छेदार चप्पल पहने

    दूल्हा दुलहिन को लेकर पैदल चल आया।

    विचित्र जूड़ा बंधन औ' चंदन लेपन से

    सज्जित हास्य वदन महिला दल आया।

    छोटे चरवाहे की बारात का जुलूस चला

    ऐसे, सुखद शिशिर वेला दुपहर की।

    टूट पड़ी गली की गली लेते पान सुपारी,

    ले मन में हर्षोल्लास, चबूतरे पर की॥

    3

    वृषभ राज के विषाण घर्षण से अंकित

    नभ में आवश्यक वक्र चंद्र रेखा नहीं!

    पर्वत पुत्री के तन की शोभा के प्रवाह में

    पूछ कभी स्वर्ग गंगा की कोई रहती नहीं।

    भृंगिरिटेश से रचित विभूति लेपन में

    गिनती रजताचल की कोई रहती नहीं।

    चक्षुश्रव के सिर पर शोभित मणि छबि में

    'द्रोण' पुष्प की आवश्यकता रहती नहीं।

    त्याग शीत का प्रपत्ति देता है लोगों को जब,

    प्रभु-लोकों की अभिलाषा जब पैदा करता

    उषोदय में निर्भय हो स्नान जो करते हैं

    डर उनसे निस्तेज हो शीत भागा करता॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : आधुनिक तेलुगु कविता प्रथम भाग (पृष्ठ 85)
    • संपादक : चावलि सूर्यनारायण मूर्ति
    • रचनाकार : विश्वनाथ सत्यनारायण
    • प्रकाशन : आंध्र प्रदेश साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1969

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