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शाहराज़ाद के लिए

shahrazad ke liye

उपांशु

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शाहराज़ाद के लिए

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    रिम्सकी-कोर्साकोव को सुनते हुए

    सूखे पत्तों पर तो ओस की बूँद भी नहीं फबती फिर 
    किस हक़ से शरद की अंतिम साँसों में 
    झड़ती पत्तियों पर झरती है बरसात 
    मानो चंद कराहते बादलों की आह ही 
    सब्ज़ रंगत खींच लाएँगी वक़्त से 
    आँसुओं को जो कुम्हलाई पत्तियों पर 
    ओस-सा तरजीह देता है; वो पत्तियाँ 
    जो दरख़्त से छिटक दी गईं 
    मौसम बदलते ही। ऐसा 
    हर साल होता है कि बसंत से सींची जा रही 
    पत्तियों का अंत 
    सर्द हवाओं की पहली जम्हाई से 

    बहुत पहले ही 
    राहगीर के जूतों तले ही 
    हो जाता है। फिर क्यों 
    तुम्हारे होंठों का खारापन जीने का सबब बनता है

    जब ज़िंदगी मानव इतिहास की कठपुतली ही दिखती है
    और जीवित रहना पन्नों में दर्ज होना नहीं बल्कि 
    उन पर लिखें अक्षरों का ग़ुलाम होना होता है। 

    ऐसे में क्यों लाद जाए बसंत 
    आकांक्षाओं का अंबार कंधों पर 
    जब ख़ुश्क हवाओं के स्पर्श से ही 
    कोंपले जो अभी नई ही थीं 
    सिहर जाती हैं 
    और छोड़ देती हैं उन डालों को, 
    पकड़े रहने का 
    दायित्व जिन पर 
    अब बोझ बन गया था। 

    और तुम कहती हो  
    कि कभी-कभी सब कुछ कितना अच्छा हो जाता है 
    पलकों के सूख जाने के बाद 
    कंधे कुछ सीधे हो जाते हैं 
    पुरानी पत्तियों के झड़ जाने के बाद ही 
    नई पत्तियों को ढोया जा सकता है। 

    वक़्त सारे घाव भर देता है 
    वो जो जिस्म पर नहीं दिखते और 
    वो जो पुश्त दर पुश्त जिस्म पर ही किए जाते हैं। 

    उस वक़्त 
    तुम्हारी हथेलियों में 
    ज़िंदगी काट लेने की इच्छा ही 
    सर्दियों का अलाव हो जाती है लेकिन 
    पतझड़ में कुचली गई पत्तियों के लिए ग्लानि 
    अपनी हथेलियों का ऊष्म तुम्हारे हाथों पर 
    छोड़ने की हिम्मत नहीं करने देता।

     
    स्रोत :
    • रचनाकार : उपांशु
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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