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छाया

chhaya

जी. शंकर कुरुप

मैं हूँ एक अर्थहीन छाया-रूप,

मेरा मलिन जीवन केवल अस्थिर स्वप्न है,

जग की मृग-मरीचिका में आनंद और उल्लास से वंचित

किसी स्वप्न में डूबता-उतरता सरकता हुआ चला जा रहा हूँ मैं।

निदाघ की कड़ी धूप में

जब मल्लिका म्लान हो जाती है

तो मैं उसकी सहायतार्थ पहुँच जाता हूँ;

मेरे शीतल शरीर से लिपटकर

मुस्कान से मनोहर मुख झुकाकर

सनिश्वास मूक खड़ी रहती है

वह लज्जा-मधुर लता-वधू।

मैं भींच देता हूँ नयन दिन के

जो परिहास-क्रीड़ा में ठहाका मारकर हँस उठता है,

और चूमता हूँ निद्रा-निमग्न कृषिस्थली के कपोल,

और आनंदित होता हूँ

ईख के प्ररोह-पुलकों को देख-देखकर।

कैसी-कैसी दशा बदलती रहती है मेरी!

कभी मैं कड़ी धूप से तपती तराई में रहता हूँ,

कभी अनजाने शीतल शैल शिखर पर चढ़ता हूँ—

निश्चय ही कोई महान् अदृश्य शक्ति

चला रही है मुझे।

कहाँ है मेरा गंतव्य स्थान?

किस वस्तु को प्राप्त करने के लिए भटकता रहा हूँ मैं?

मुझमें और इन पहाड़ों में कितना अंतर?

पर्वत है अचल मनोहर,

किंतु मैं जनमा हूँ चपल विरूप।

नहीं,

महाशैल और महासागर भी मिटेंगे एक दिन

कोई भी यहाँ रहेगा तद्वत्—

यही तो है सृष्टि की स्वाभाविक गति।

सब के भीतर है किंतु एक परम सुंदर शाश्वत सत्य,

ये जो दीखते हैं, उसी के बाहरी रूप हैं।

हाय! संध्या पहुँची,

विदा, अयि मनोहारिणी धरिणी,

मैं क्षण-भर में तम में विलीन हो जाऊँगा।

हे मल्लिके! पुष्प-अश्रुकण झरने दो,

इस तरह खोने दो मुझे, रहे-सहे धैर्य को।

स्रोत :
  • पुस्तक : ओटक्कुष़ल (बाँसुरी) (पृष्ठ 71)
  • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक जी. नारायण पिल्लै, लक्ष्मीचंद्र जैन
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
  • संस्करण : 1966

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