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सज़ा

saza

करतार सिंह सुमेर

अन्य

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और अधिककरतार सिंह सुमेर

    मैं...अमानत था कभी अपनी

    लेकिन अब नहीं

    खींच निकाला तन किसी चालाक मन से

    और अब एक टीस है शायद धमकी-सी

    क्या कहा कि सज़ा सुना दी गई

    अपने दुश्मन पर नज़र अपराध है

    लेकिन मेरी आवाज़ का करोगे क्या

    सितम की इस रात में

    घंटियों नरसिंहों की हँसी, रुदन ने

    मेरी वसीयत सुनने नहीं दी

    मैं कहता—ज़िंदगी माता मेरी क्वाँरी ही सही

    लेकिन अभी यह प्यार की मुजरिम नहीं

    फ़रिश्ता कोई, इसी का शाश्वत जन्म

    कोई, एक कली सुँघाकर पत्थर कर गया

    मुझे जन्मा, फेंका गया, अँधेरी रात में

    एक सिसकी

    और फिर सूचना

    स्वर्ग में किसी को उलटा लटकाया है आज

    और मेरी बगल में तभी से एक ख़ंजर-सा

    मेरी अमानत का रक्षक युगों से

    अपनी ज़िद पर मेरी दुहाई

    यही थी, जल्दी करो

    ज़िंदगी को दिया था वचन कि आऊँगा ज़रूर

    लेकिन जल्लादों ने कहा—यही सज़ा है

    ऐसे रात पर लागू नहीं होता समय

    लेकिन फ़रियाद पहिए के नीचे कुचल दी जाएगी

    जी हाँ, उसी रात

    मेरी हड्डियों का चूरा बनाकर

    वह बारूद जिसकी अगली गोली

    कितने ही मार्टिन लूथरों में से निकाली

    गुज़ार दी गई

    अभी तक उसकी साँस

    धरती के हर उजले माथे पर

    फँसी बैठी हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 121)
    • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014

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