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गर्भवती कवयित्री

garbhawti kawyitri

ऋतुराज

ऋतुराज

गर्भवती कवयित्री

ऋतुराज

शब्द और अर्थ से ही नहीं रची जाती है

कहीं फूल कहीं पत्तियों के रंगों की यह दुनिया

ठोस आधार है इसके कार्य-कारण सूत्र का

जीवन की यही रहस्यमय गाँठ खोलने को

कविताई छोड़कर वह चली आई है

द्रव्य की रसपूर्ण गहराई में

वह मुस्कुराती लजीली कवयित्री

अपने सृजनशील वर्षों में पहली बार

समझ गई है कि रचना आख़िर क्या होती है

और भी बहुत कुछ

जो प्रेम और चिंता के बिना भी रच जाता है यूँ ही

जो एक स्त्री के दासत्व के भीतर

स्वच्छंद इच्छा का रूप धारण कर सकता है

और जिसे शरीर के आपद्धर्म में

कुंभक की तरह स्थिर किया जा सकता है

कवयित्री की भाषा का यह प्रस्थान बिंदु

काफ़ी दिलचस्प है और साहसिक हस्तक्षेप है

जीवन की एकरसता में

अब वह समर्पित कर सकेगी अपनी लिखी कविताएँ जीवन को

जिसमें कोरे शब्द ही नहीं होंगे

बल्कि नन्ही उँगलियाँ और आँखें होंगी

अब सब कुछ मूर्त होगा

क्योंकि अमूर्तन की भाषा में

बहुत समय तक नहीं हो सकती है कविता

स्रोत :
  • पुस्तक : स्त्रीवग्ग (पृष्ठ 27)
  • रचनाकार : ऋतुराज
  • प्रकाशन : बोधि प्रकाशन
  • संस्करण : 2013

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