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सुधा अरोड़ा

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सुधा अरोड़ा

कल दुपहर बड़े बेमन से उठी

कि गैस जलाकर कुछ अपने लिए पका लूँ!

अन्नपूर्णा चार दिन से छुट्टी पर है

खाने का शार्टकट

सब्ज़ियाँ और दाल चावल साथ-साथ

यानी खिचड़ी!

तभी कॉलबेल बजी

नए अंदाज़ में सरसराती सी

नयी उँगलियों की छुअन पर

कुछ काँपती-सी

सामने देखा

आँखों को यक़ीन दिलाना पड़ा

हाँ, यह वही तो है

प्यारी-सी नसरीन!

हथेली में क्रोशिए के कवर से ढँकी थाली

मुझे थमाई उसने

और पैर छूने को नीचे झुक गई!

उसे कंधों से थामा

गले से लगाया!

फेसबुक और व्हाट्सएप्प की आदी

उँगलियों को

एक इंसान की छुअन ने

भीतर तक भिगो दिया

'ईद मुबारक' सुनते कहते गला भर आया!

भर-भर आँखें उसने घर को निहारा

‘सब कुछ वैसा ही है दीदी

कुछ भी तो नहीं बदला!’

‘हाँ, बदल जाते हैं उसमें रहने वाले लोग

कुर्सियाँ, मेज़ और सोफ़े कहाँ बदलते हैं

खिड़कियाँ-दरवाज़े भी रहते हैं वहीं!

तुम अपनी सुनाओ नसरीन

कहाँ हैं कबीर?

कहाँ हैं हमारी लाडो ज़बीन?’

पहले मुँह मीठा करें दीदी

थाली पर से उसने कवर हटाया

और सकुचाते हुए

देखा मेरी ओर!

ईद की मीठी सेवइयाँ

ऊपर काजू-किशमिश का छिड़काव…

और अब तक याद थी उसे मेरी पसंद

दो पराठे मूली के भी!

स्वाद वही

जो नसरीन के हाथों का था!

‘आज तो अपने ईश्वर से कुछ और माँग लेती

तो वह भी मिल जाता!

कभी कभी वक़्त कितना दरियादिल हो जाता है!’

‘अब बताओ नसरीन

कैसे हैं बच्चे?’

आँखें नम हुईं और बात पहुँची मुझ तक

‘ज़बीन ने ब्याह कर लिया भाग कर

एक कुजात से

मेरी रज़ामंदी के बग़ैर!

उसके घर आने पर रोक लगा दी

फिर भी हर माह पैसे भेज देती है नामुराद

बैंक में ऊँची नौकरी पर जो लग गई है…’

‘ऐसे क्यों किया नसरीन

यही सिखाया था तुम्हें

राज़ी-ख़ुशी विदा करती उसे

आने देती अपने घर!’

‘वो बात नहीं दीदी!

इतनी भी तंगदिल नहीं मैं

पर मोहल्ले का क्या भरोसा

डर है तो बस यही

आने दिया तो मारे जाएँगे दोनों

अपने ही लोगों के हाथों!

अब जहाँ भी है

सुकून तो है उनके बचे होने का!’

‘और कबीर?

वह बहन की तरह पढ़ा-लिखा नहीं

लेकिन गैरेज में मेकैनिक है

इतनी बरकत है

कि खोली में दो बेला जलता है अलाव!’

एक तृप्त मुस्कान उसकी आँखों तक थी!

'खाओ दीदी!

आपको बहुत पसंद है

इसीलिए लाई

मूली मीठी है

मैंने खाकर देखा फिर उसे कसा!'

'ले, तू ये संदेश खा

नोलेन गुड़ 'जल भरा'

कोलकाता से भाई लाया था

यह आख़िरी था तेरे ही नाम का

इसलिए बचा रह गया!'

उसने संदेश खाया

और मैंने सेवइयाँ

विदा लेते वक़्त

मुँह से निकला—‘ख़ुश रहो नसरीन!’

सुनते ही आँखें डबडबा आईं उसकी

और रूँधे गले से उसने कहा—

'आपने नाम लिया

मैं तो भूल ही गई थी अपना नाम

सब कबीर की अम्मी ही कहते हैं

भूले से भी कोई ज़बीं की अम्मी नहीं कहता!

और नाम से तो कोई बुलाता ही नहीं

ऐसा क्यों दीदी?'

कुछ सवाल सवाल ही बने रहते हैं नसरीन

सबके जवाब हमारे पास कहाँ होते है!

स्रोत :
  • रचनाकार : सुधा अरोड़ा
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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