सात दिन का सफ़र

sat din ka safar

मंगलेश डबराल

मंगलेश डबराल

सात दिन का सफ़र

मंगलेश डबराल

पहले एक साफ़ धुली हुई चादर की तरह सोमवार प्रकट होता है

और उम्मीद बँधती है कि इस लंबे सफ़र में

कुछ नए सिरे से किया जा सकता है

हम रास्ते की दिक़्क़तों और उन्हें लाँघने की इच्छा का ख़ाका बनाते हैं

मंगलवार एक चट्टान की तरह है

एक दुविधापूर्ण स्थिति जहाँ यह पता नहीं चलता

कि आगे कौन-सा मोड़ या कैसी ढलान है

और उसके लिए कितना उत्साह या सावधानी हम में होनी चाहिए

बुधवार के पारदर्शी काँच से हम कुछ दूर तक देख सकते हैं

कि कुछ भी उस तरह आसान नहीं है जैसा हम सोचते थे

और असमंजस अनिश्चय धुँधलका पहले की ही तरह है

अगला दिन गुरुवार एक पड़ाव की तरह लगता है

क्योंकि हम आधे रास्ते तक गए हैं

और जान सकते हैं कि हमारी ठीक-ठीक स्थिति क्या है

और शायद इसी में से कोई रास्ता निकलता है

इसी रास्ते पर शुक्रवार सांत्वना देता हुआ आता है

लेकिन यह तय है कि हम अभी तक कुछ नहीं कर पाए हैं

और अब समय बहुत कम रह गया है

और हमने किसी को चिट्ठी तक नहीं लिखी

इसी घबराहट में हम शनिवार में प्रवेश करते हैं

जो कि दरअसल एक तहख़ाना है जहाँ यह कहना कठिन है

कि हम चल रहे हैं या रुके हुए हैं

और जब कोई पूछता है कि क्या हाल हैं

तो हम कहते हैं बतलाने के लिए कुछ ख़ास नहीं है

अगली सुबह इतवार जाता है

यह छुट्टी का दिन है चीज़ें अपनी प्रागैतिहासिक

निश्चेष्टता में पड़ी हैं किताबें औंधी रखी हैं

चाय ठंडी हो चुकी है सामने गंदे कपड़ों का अंबार लगा है

और बाहर दरवाज़े पर किसी की धीमी दस्तक है।

स्रोत :
  • रचनाकार : मंगलेश डबराल
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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