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तृष्णा का उन्मूलन

tirishna ka unmulan

अनुवाद : एम. जी. वेंकटकृष्णन

तिरुवल्लुवर

अन्य

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तिरुवल्लुवर

तृष्णा का उन्मूलन

तिरुवल्लुवर

और अधिकतिरुवल्लुवर

    361

    सर्व जीव को सर्वदा, तृष्णा-बीज अचूक।

    पैदा करता है वही, जन्म-मरण की हूक॥

    362

    जन्म-नाश की चाह हो, यदि होनी है चाह।

    चाह-नाश की चाह से, पूरी हो वह चाह॥

    363

    तृष्णा-त्याग सदृश नहीं, यहाँ श्रेष्ठ धन-धाम।

    स्वर्ग-धाम में भी नहीं, उसके सम धन-धाम॥

    364

    चाह गई तो है वही, पवित्रता या मुक्ति।

    करो सत्य की चाह तो, होगी चाह-विमुक्ति॥

    365

    कहलाते वे मुक्त हैं, जो हैं तृष्णा-मुक्त।

    सब प्रकार से, अन्य सब, उतने नहीं विमुक्त॥

    366

    तृष्णा से डरते बचे, है यह धर्म महान।

    तो फँसाए जाल में, पा कर असावधान॥

    367

    तृष्णा को यदि कर दिया, पूरा नष्ट समूल।

    धर्म-कर्म सब मिले, इच्छा के अनुकूल॥

    368

    तृष्णा-त्यागी को कभी, होगा ही नहिं दुःख।

    तृष्णा के वश यदि पड़े, होगा दुःख पर दुःख॥

    369

    तृष्णा का यदि नाश हो, जो है दुःख कराल।

    इस जीवन में भी मनुज, पावे सुख चिरकाल॥

    370

    तृष्णा को त्यागो अगर, जिसकी कभी तुष्टि।

    वही दशा दे मुक्ति जो, रही सदा सन्तुष्टि॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : तिरुक्कुरल : भाग 1 - धर्म-कांड
    • रचनाकार : तिरुवल्लुवर

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