संस्कृत वाणी का आर्तनाद

sanskrit wani ka artanad

माधवचैतन्य ब्रह्मचारी

माधवचैतन्य ब्रह्मचारी

संस्कृत वाणी का आर्तनाद

माधवचैतन्य ब्रह्मचारी

प्राचीन भारत के महान् मंत्री आदि वर्गों द्वारा मेरी केंद्रीय शासन की

सभाओं में भली-भाँति पूजा की जाती थी, किंतु आज मंत्रिगणों द्वारा मैं

उपेक्षित हूँ। हे कृपालु भगवन्, बताइए, इसमें मेरा क्या दोष है!

पहले इस जगती-तल के मानवों की एक मात्र विद्या महादेववाणी संस्कृत

ही थी। किंतु आज भौतिक मतों में रुचि रखने वाले लोगों के लिए वह

निंदनीय बन गई है। क्या तब लोगों की बुद्धि अधिक थी!

प्रादेशिक भाषाएँ इसलिए बनाई गई थीं कि स्त्री, बालक, सेवक आदि

लोग उसका अपने घरों में सरलता से व्यवहार कर सकें। यद्यपि वे सारहीन

हो गई हैं तथापि आज मेरे ये पुत्र उन्हीं में मग्न हैं।

अँगरेज आदि विदेशियों के शासन-काल में पुण्योपार्जन के अभिलाषी

देशी राजाओं ने अपने भवन में मेरी साधारण रूप से रक्षा की, किंतु वे राजा

आज पदच्युत हो गए हैं और पृथ्वी पर महाराजेन्द्र ही एकच्छत्र शासक

हैं। यदि अब भी मेरी उन्नति हो तो फिर मैं किसकी शरण लूँ।

लोग मुझे निराश्रित रोती हुई छोड़कर मेरी प्रशंसा करते हैं और

प्रतिवर्ष सभाएँ करके बहुत धन का नाश करते हैं। उनसे मेरा क्या लाभ!

यदि पुत्र घर में दुखी माता की सेवा और उसका आदर करना छोड़कर उसकी

प्रशंसा एवं स्तुति करके समय बिताते रहें तो वे माता का क्या भला करते हैं!

विश्व-संस्कृत-महापरिषद् के प्रमुख नेता यत्नपूर्वक की जाने वाली

सभाओं में मेरा क्या उपकार करते हैं? उनसे इतना भी नहीं होता कि नगरों

की सड़कों पर मुँह से मुझ राष्ट्रवाणी का उच्चारण तो करें।

[तब फिर आप चाहती क्या हैं! यह पूछे जाने पर उन्होंने कहा—]

तैलंग आदि विभिन्न नाम वाले प्रांतों में उस-उस नाम की भाषाएँ भले

ही हों, पर जनतंत्र का भूषण होने के कारण मैं ही समस्त भारत-भूमि में

राष्ट्रीय भाषा के पद पर स्थित भारती नाम की भाषा बनूँ, जो कि समस्त

इच्छाओं को पूरा करने वाली सुंदर महावाणी देववाणी ही है।

यदि प्रांतीय भेद-भाव मिटाने की कामना है और ऐसी भाषा चाहते

हो जो केंद्रीय सदनों में प्रादेशिक वैभिन्न्य से मुक्त हो तो मेरे सिवाय कोई

दूसरी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बन सकती।

[आपको तो यहाँ कोई नहीं जानता, फिर आप राष्ट्रभाषा कैसे बन

सकती हैं! इस पर वह बोली—]

यद्यपि आज मुझे सब लोग नहीं जानते, फिर भी राष्ट्रीयता प्राप्त

करके वे जान लेंगे। ऐसा होता तो भारतवासी अँगरेजों की बोली को भी

व्यर्थ ही क्यों पढ़ते?

चाहे कुछ लोग मुझे विधवा की लड़की की तरह नाम-मात्र के रूप

में घर में रखें तथा प्रांतीय भाषाओं के प्रेमी दूसरे लोग स्वार्थ-सिद्धि

के लिए (मेरे मार्ग में) रुकावट डालें, पर जैसे भारत माता की स्वतंत्र होने की

आर्तनादयुक्त इच्छा महाक्रांति से ही पूरी हुई, वैसे ही मेरी अभिलाषा भी

महाक्रांति से ही पूर्ण होती हुई देखोगे।

स्रोत :
  • पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 543)
  • रचनाकार : माधवचैतन्य ब्रह्मचारी
  • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
  • संस्करण : 1956
हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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