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कालिदास

kalidas

अनुवाद : शांतिकुमार नानूराम व्यास

ज्वालापतिलिंग शास्त्री

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और अधिकज्वालापतिलिंग शास्त्री

    सदा भगवान् शंकर की मन से आराधना करने वाले श्री कालिदास

    कविता के हाव-भाव हैं, देवों और विद्वानों द्वारा वंदित वाणी के विलास हैं

    तथा भाषा-रूपी नवयुवती के साथ रमण करने वाले पुरुष हैं।

    स्त्री और पुत्री से रहित होने पर भी उन्होंने स्त्री-पुत्री वालों को अपनी

    सुंदर उक्तियों से संतुष्ट किया। हार्दिक प्रसन्नता से संसार में निमग्न होकर

    उन्होंने शकुंतला की कथा को अपनी ही कथा बना डाला।

    जैसे रघु के वंश में उत्तरोत्तर प्रतिभा बढ़ती गई, वैसे ही कवि-शिरोमणि

    कालिदास की प्रतिभा उनके 'रघुवंश' काव्य में बढ़ती गई। राम की कीर्ति

    की कितनी आयु है, यह कौन कह सकता है! यही उपमा कालिदास की

    कीर्ति पर भी सार्थक है।

    ‘कुमार संभव’ में अपनी शिव-भक्ति द्वारा चारों ओर आनंद उत्पन्न

    करते हुए उन्होंने कथा-रूपी अमृत से भरी सुंदर तरंगों वाली अपनी कविता-

    रूपी स्त्री को जटाओं में बाँध लिया।

    हनुमान् द्वारा ले जाए गए सीता के प्रति राम के संदेश का हृदय में

    निरंतर ध्यान करते हुए ही उन्होंने यक्ष-भार्या के प्रति मेघ द्वारा ले जाए गए

    वैसे ही संदेश की रचना की।

    नित्य नवीन अभिसार करने वाली नवयौवना प्रियतमा द्वारा दिए गए

    संदेश का अत्यंत स्मरण करते हुए उन्होंने अमृतमयी उक्तियों से मेघ-संदेश

    की रचना की। ये उक्तियाँ उसी प्रियतमा में संलग्न मन की अभिलाषाओं का

    अनुगमन करने वाली थीं।

    (अपने काव्यों की) तीव्र धाराओं से उन्होंने आकाश की वर्षा-धारा

    को भी पराजित कर दिया। रसीली देववाणी के शब्दों के वह पुष्पराग हैं।

    विद्वान्-रूपी भौंरों के प्रेम का संपादन करने में वह अपनी कृतियों के कमल-

    रस के मधु से मतवाले हैं।

    प्राचीन और अर्वाचीन महाकवियों के कर-कमलों की राशि से पूजित

    उनकी कविता में उनकी जो अपनी छाया है, तथा जिस चंद्र-मंडल को उन्होंने

    अपनी शाश्वत उपमाओं द्वारा कल्पित किया है, वे कविता के ग्रीष्म-काल में

    शांति प्रदान करते हैं।

    उनके चरण-कमल समस्त राजाओं के शीर्ष-किरीटों के रत्नों की कांति

    से प्रकाशित हैं और पृथ्वी के सारे श्रेष्ठ कवियों द्वारा स्तुति किए जाने वाले

    काव्य-रूपी अमृत में प्रतिबिंबित हुए हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 523)
    • रचनाकार : ज्वालापतिलिंग शास्त्री
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1956

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