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भारती-वैभव

bharti vaibhaw

अनुवाद : शांतिकुमार नानूराम व्यास

माधवप्रसाद देवकोटा

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और अधिकमाधवप्रसाद देवकोटा

    हे माता, तुम्हारे चरणों का यह नख-रूपी स्वच्छ दर्पण सदा हमारे

    सामने रहे, जिससे हम आपको प्रणाम करते हुए, बहुतों से मतभेद रहने पर

    भी, अपना मुख दिखला सकें (अपने मत का प्रचार कर सकें)।

    वीणा-वादन करती हुई वाणी की अधीश्वरी देवी की जय हो! तुम

    रंगमंच पर नटों की तरह नाना अर्थों को हमारे हृदय में नचाने वाली बनो।

    हाथ में रुद्राक्ष माला लिए क्या आप शांत भाव से जगत् को यह शिक्षा

    नहीं देतीं कि इंद्रिय-समूह को जीत लेने वाले प्राणी को शांति अवश्य मिलेगी?

    मैं जल से पैदा होने वाला हूँ, यह सोचकर कमल लज्जा के मारे स्वयं

    तुम्हारे नीचे स्थित है। तुम्हारे मुख का स्मरण होने पर बादल उस कलंकयुक्त

    निर्लज्ज चंद्रमा को ढक लेता है।

    तीनों लोकों में एक-मात्र बोली जाने वाली तुम, देश-विदेश में भिन्न

    होने पर भी, वर्ण की दृष्टि से अभिन्न हो। तुम एक ऐसी भाषा हो जिसका

    सारा संसार व्यवहार करता है।

    हे वाणी की अधीश्वरी, मूकता के प्रति तुम्हारा कितना द्वेष है!

    जल-रूप से बहती हुई तुम उसे जल की तरंगों में भी क्षमा नहीं करती

    (अर्थात् तुम्हारा आराधन कर कोई मूक नहीं रह सकता)।

    (आध्यात्मिक, आधिभौतिक एवं आधिदैविक) तीन तापों से पीड़ित

    याचकों के समूह को तुमने नाना इच्छित वस्तु देकर कृतार्थ कर दिया।

    तुम्हारे कोष को दूसरे चुरा नहीं सकते। वह कोष मुझ पर अनुग्रह करें।

    तुम्हारी करुणा होने पर सारी खलता (नीचता) खलता (स्खलित) ही

    हो जाती है, अन्यथा वह खरता (गधापन) बन जाती है, जो मनुष्य के

    शरीर में रहकर ढोने का ही कष्ट उठाती रहती है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 539)
    • रचनाकार : माधवप्रसाद देवकोटा
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1956

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