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साँझ की शायरी

sanjh ki shayari

अनुवाद : शंकर लाल पुरोहित

गिरिजा कुमार बलियार सिंह

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और अधिकगिरिजा कुमार बलियार सिंह

    हे पुरातन भारत!

    तुम्हारे सागर में उठता है तूफ़ान...

    तुम्हारा प्राचीन सूरज

    थक जाता तैरता-तैरता!

    आहत स्वरों को थामकर अरब सागर

    घने दुःख में आज

    साँझ की शायरी गाने बैठा

    तुम्हारा प्राचीन चाँद राह भटकता बंगोप सागर में

    तुम्हारे लोग पढ़ते पुरातन कुरुक्षेत्र चीर...

    साँस उठती निजनता... उठती शीत में सिहर

    बर्फ़ का दुर्ग सुबक उठता हिमाद्रि की प्राचीर।

    पढ़कर अतीत, सुनकर तुम्हारे पुराण-इतिहास

    आकर देखता पर्यटक—नदी, झील, माटी, आकाश

    उदास मंदिर, मठ, गिरिकंदरा, झंडा और वाद,

    इसी बेला पर—खोजता है मृत इतिहास।

    जबकि केवल घोंघे, सीपी सहेज पाता।

    सभ्यता की मुखशाला, संस्कृति की भूलग्न संपदा।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 269)
    • संपादक : शंकरलाल पुरोहित
    • रचनाकार : गिरिजा कुमार बलियार सिंह
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2009

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