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समर्पण

samarpan

बद्री नारायण

अन्य

अन्य

और अधिकबद्री नारायण

    मैं जानता हूँ कि कलापक्ष पर बात करना परम धर्म है साहित्य का

    पर मैं भूख के कलापक्ष से अभिभूत होने से बचते हुए

    उसके राजनीतिक-पक्ष पर बातें करना चाहता हूँ

    इस क्रम में सर्वप्रथम मैं अपने आख्यान में

    उस सुग्गे को शामिल करना चाहता हूँ

    जिसने सख़्त पहरे के बावजूद जुठा दिए थे

    पेड़ पर लटके पके अनार

    अपने आख्यान के केंद्र में उस चींटी को रखना चाहता हूँ

    जिसने एक दिन पर्व, त्यौहार, पाक-साफ़ का नहीं किया था ख़याल

    और गृहस्थिन की आँखों के सामने

    अपने टूँड़ पर

    गेहूँ का ढोंका उठा ले गई थी,

    इस आख्यान के केंद्र के बिल्कुल पास

    मैं उस श्याम रंग चूहे को रखना

    चाहता हूँ जो अपने छोटे-छोटे दाँतों से काट देता है काठगोदाम

    मैं चाहता हूँ इस आख्यान में कि तिर्यक रेखाओं पर वे गिलहरियाँ हों

    जो कई बार सोये शेर की माँद से उठा लाती हैं उसका खाना

    लेकिन अपने आख्यान का अर्द्ध भाग

    उस आदमी को समर्पित करना चाहता हूँ

    जिसने रचे हैं भूख के ख़िलाफ़

    महान सिद्धांत

    स्मारक, स्मृति-पत्र, शहीद दिवस के रिवाज से भिन्न

    यह पूरा आख्यान मैं उन लोगों को

    समर्पित करना चाहता हूँ

    जो इस सिद्धांत पर चले हैं

    और भूख के ख़िलाफ़ लड़ते हुए मरे हैं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : खुदाई में हिंसा (पृष्ठ 11)
    • रचनाकार : बद्री नारायण
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2010

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